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श्री गुरु गौतमस्वामी ]
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अहं से अहँ तक
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-पू. मुनि श्री दिव्यरलसागरजी म. __मानव मन अपनी चारों ओर अहं (egoism) की कारा रचता है। अहं .की कारा में जकड़ा होने के बावजूद भी वह अपने आप संपूर्ण तौर से सुरक्षित समझता है। इतना ही नहीं, बल्कि स्वयं को सर्वशक्तिमान और पूर्ण भी समझता है। जब कि यह सत्य नहीं है। अहंकारी कभी पूर्ण नहीं होता है। पूर्णता का निवास लघुता-नम्रता में होता है। संत कबीरदासने कहा है न
लघता से प्रभता मिले, प्रभुता से प्रभु दूर।
चींटी साकर ले चली, हाथी के सिर धूर ।। अभिमान, अहंकार, गर्व, घमंड, दर्प आदि अहं के ही पर्यायवाची हैं। अभिमानी सारी दुनिया को अपने प्रभाव में ढाँक देना चाहता है। वह अपने मार्ग में अवरोध बर्दाश नहीं कर सकता। घमंडी अपने सिवाय किसी की तरक्की सहन नहीं करता। अभिमानी आदमी अल्हड होता है। उसका अभिमान ही अन्ततः उसे क्षत-विक्षत कर देता है।
. अहंभाव अहँ की साधना में बाधक बनता है। अहंभाव से भरे आदमी के लिए धर्म के दरवाज़े बन्द हो जाते हैं। अहं आत्मा को संसार में ही रचा-पचा रखता है। जब अहंभाव पूर्णतः मिट जाता है, तब अर्ह भाव की उपलब्धि होती है। अहँ भाव में आत्मा का पूर्ण विकास है, तो अहंभाव में पतन ।
दीपावली और नूतन वर्ष के शुभागमन पर भगवान महावीर और गणधर गौतमस्वामी का स्मरण सहज होता है। इस अवसर पर गणधर गौतमस्वामी के जीवन पर थोडा दृष्टिपात करें। यों तो उनका सम्पूर्ण नाम 'गणधर देव श्री इन्द्रभूति गौतम' है; पर उन का प्रिय नाम 'गौतम' कुछ ज्यादा ही मधुर लगता है।
दीक्षित जीवन के पूर्व गौतम 'वेदांत के महाज्ञाता इन्द्रभूति गौतम' के नाम से प्रख्यात थे। ब्राह्मण पंडितों में वह सर्वश्रेष्ठ जाने जाते थे। वह पांचसो शिष्यों के गुरु थे। यज्ञादि वैदिक कार्यों में वे प्रवीण थे। उनके मन्त्र-तन्त्रों की शक्ति से देवता भी अधीन थे।
एकदा अपापानगरी में आर्य सोमिल नामक श्रीमंत ब्राह्मण के यहाँ ग्यारह महापंडितों के साथ इन्द्रभूति गौतम यज्ञ करवा रहे थे। उसी समय अपापानगरी के महसेन वन में तीर्थंकर
देव पधारे। तीर्थंकर की सेवा-उपासना एवं देशना श्रवण करने स्वर्गलोक से देवताओं के विमान पृथ्वीतल पर आते दिखाई दिए।
यज्ञभूमि पर खुशी का वातावण छा गया। जगह जगह इन्द्रभूति की प्रशंसा होने लगी। 'सर्व शास्त्र पारगामी इन्द्रभूति गौतम जहाँ उपस्थित हो वहाँ देवात्माओं को भी आना पडता है।' | इन्द्रभूति भी मनोमन फूले न समाने लगे।
पतना
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