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[ महामणि चिंतामणि
होते थे। इन गुरु-शिष्य की अनमोल प्रश्नोत्तरी का संग्रह 'श्री भगवती सूत्र' नामक आगमग्रंथ में ||
आज भी संगृहीत है। * गौतम ने कठोर साधना-तपस्या द्वारा अनेकानेक लब्धियाँ प्राप्त की। उन्होंने अपनी लब्धि । के बल पर अष्टापद महागिरि की यात्रा की। पन्द्रह सौ तापसों को दीक्षा प्रदान कर लब्धि से थोड़ी सी खीर से भर पेट मारणा करवाया। उनके उपदेश से प्रभावित पचास हजार आत्माओं ने संयम स्वीकार कर आत्मकल्याण किया।
प्रभु महावीर पर गौतमस्वामी को अटूट राग हो गया था।
भगवान महावीर के सांनिध्य में आने से गौतम ने अहं को तो नेस्तनाबूद कर दिया। किन्तु महावीर के प्रति अनुराग की साधना दृढ़ कर ली। बस, यह अतिराग ही अब गौतम को अहँ पद से वंचित रखने लगा। पर गौतम ने उस राग में कभी कमी ना की। वे तो गुरूभक्ति का आनंद लूटते ही रहे। परमात्मा की सेवा में गौतम का तीस वर्ष का लम्बा अन्तराल बीत गया।
भगवान महावीर तो भूत, भविष्य और वर्तमान काल के सभी पर्यायों को एक साथ जानते थे। आज से २५१६ वर्ष पूर्व प्रभु महावीर अपापापुरी नगरी में अपना अन्तिम वर्षावास व्यतीत कर रहे थे। अपना अन्तकाल नजदीक जानकर भगवानने दो उपवास का तप किया और सोलह प्रहर निरंतर देशना प्रारंभ की। अपने प्रति अति राग रखने वाले गौतम को उन्होंने देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध करने किसी अन्य गाँवमें भेज दिया।
कार्तिक कृष्णा अमावास्या की काली-स्याह रात्रि में महावीर परमात्मा निर्वाण को प्राप्त हुए। आकाश में अलौकिक नाद गुंजारित होने लगे, देवी-देवताओं का समूह पृथ्वी पर उतरने लगा। सारा वातावरण शोकाकुल हो गया। हवाएँ चारों दिशाओं में दूर दूर तक शोकसंदेश फैला रही थीं।
देवशर्मा को प्रतिबोध कर वापिस लौटते समय, गौतमस्वामी को मार्ग में महावीर देव के महानिर्वाण के समाचार मिले।
"हे, वीर प्रभु का निर्वाण ? मेरे प्रभु मुझे छोड़कर चले गये?" गौतमस्वामी के हृदय पर वज्राघात हुआ। वे मार्ग में ही बालक की तरह ज़ोरों से फूट-फूट कर रोने लगे। योगी की आंखों से बहने वाली अमूल्य अनराधार अश्रुधारा अंतस्थल को हचमचाने वाली थी। इस समय अनेक जीवों के उद्धारक गौतमस्वामी को कौन आश्वासन दे सकता था ? भगवान का विरह गौतम के लिए असहनीय था। वे अत्यंत करुण रुदन करते हुए बोलने लगे--
"हे नाथ! यह आपने क्या किया? अन्त समय मुझे अपने से दूर किया ? मेरी कौन सी भूल की सज़ा मुझे इस समय दी गई ? हे भदंत! मैंने उम्र भर आपकी सेवा की और अन्त समय मुझे ही अपने दर्शन से विमुख किया? हे प्राणेश! अब मेरा कौन ध्यान रखेगा? अब मेरे मन की उलझनों को कौन सुलझाएगा? मुझे अब 'गौतम गौतम' कहकर कौन पुकारेगा? और मैं 'भदंत' कहकर किसे बुलाऊँगा?