________________
श्री गुरु गौतमस्वामी ]
[७६५
maaaaaaaaaaaoooooooon
000000Roomeomoom
नीचे उतरेंगे हम उन के शिष्य बन जावेंगे। इनकी शरण अंगीकार करने से हमारी मोक्ष की आकांक्षा अवश्य ही सफलीभूत होगी।
अष्टापद पर्वत पर भगवान ऋषभदेव का निर्वाण हुआ था। वहाँ पर चक्रवर्ती भरत ने
के मख से होने वाले २८ तीर्थंकरों की कायप्रमाण एवं वर्ण वाली रत्नमय प्रतिमाओं का निर्माण कराया था। और चारों दिशा में ४-८-१०-२ की संख्या में बिराजमान की थीं। उन प्रतिमाओं के दर्शन कर उन की रोमराजि विकसित हो गई, और हर्षोत्फुल नयनों से दर्शन किये। श्रद्धा भक्ति पूर्वक वंदन, नमन, भावार्चन किया। रात्रि एक सघन वृक्ष के नीचे धर्मजागृति पूर्वक ध्यानस्थ होकर बितायी।
वहाँ पर वज्रस्वामि का जीव वैश्रमण देव भी तीर्थ-वंदनार्थ आया था। गुरु गौतमस्वामि के हृष्टपुष्ट तेजोमय बलवान शरीर को देख कर मनमें विचारने लगा-कहाँ तो शास्त्रो में वर्णित कठोर तपधारी दुर्बल कृशकाय श्रमणों का शरीर, और कहाँ यह हृष्टपुष्ट तेजोमय शरीरधारी श्रमण ! ऐसा सुकुमार शरीर तो देवों को भी नहीं मिलता। तो क्या यह श्रमण शास्त्रोक्त मुनिधर्म का पालन करता होगा? या केवल परोपदेशक ही होगा?
गुरु गौतम उस देव के मनोगत भावों को जान गये। और उस की शंका को निर्मूल करने के लिये ज्ञाताधर्मकथा के १६ वें अध्याय में वर्णित पुण्डरीक कण्डरीक का जीवनचरित्र सुनाने लगे और उसके माध्यम से कहा कि-महानुभाव! न तो दुर्बल, अशक्त और निस्तेज शरीर ही मुनित्व का लक्षण बन सकता है, और न ही स्वस्थ, सुदृढ, हृष्टपुष्ट एवं तेजस्वी शरीर मुनित्व का विरोधी बन सकता है। वास्तविक मुनित्व तो शुभ ध्यान द्वारा साधना करते हुए संयमयात्रा में ही समाहित रहता है। वैश्रमण देव की शंका निर्मूल हो गई और वह बोध पा कर श्रद्धालु बन गया।
प्रातःकाल जब गौतमस्वामि पर्वत से नीचे उतरे तो सभी तापसों ने उन का रास्ता रोक कर कहा- “पूज्यवर! आप हमारे गुरु हैं और हम सभी आपके शिष्य हैं।" गौतम बोले- "तुम्हारे
और हम सब के गुरु तो तीर्थंकर महावीर हैं।" यह सुनकर तापस साश्चर्य बोले- "आप जैसे सामर्थ्यवान के भी गुरु है?"
गौतम ने कहा- “हाँ, सुरासुरों एवं मानवों के पूजनीय, रागद्वेष रहित सर्वज्ञ महावीरस्वामि जगद्गुरु हैं-वे ही मेरे गुरु हैं।" तापसों ने कहा-"भगवन् ! आप हमें इसी स्थान पर और अभी ही सर्वज्ञशासन की दीक्षा प्रदान करावें।" गौतमस्वामि ने अनुग्रह पूर्वक कौडिन्य, दिन्न और शैवाल को पन्द्रह सो तापसों सहित दीक्षा प्रदान की और भगवान के दर्शनार्थ चल पड़े। रास्ते में गौतम ने शिष्यों से पारणा करने को कहा-तापसों ने कहा- “आप जैसे समर्थ गुरु को पा कर हम परमानंद को प्राप्त हुए हैं-अतः हम परमान्न खीर का भोजन लेकर पारणा करना चाहते हैं।" गौतमस्वामि पात्र ले कर समीप की वस्ती (गाँव)में भिक्षाचर्यार्थ गये। लब्धिधारी गौतमस्वामि को वांछित क्षीर की प्राप्ति हुई। पात्र भर कर शिष्यमंडली के पास आये, और पारणा हेतू, भोजन मंडली में बैठने की अनुज्ञा प्रदान की। नवदीक्षित मुनि आपस में कानाफुसी करने लगे कि हम १:०३ हैं, और यह खीर तो १५०३ के तिलक लगाने बराबर भी नहीं है। कैसे पारणा होगा? शिष्यों का मन आशंकित देखकर उसी क्षण गौतमस्वामि शिष्यों को पंक्तिबद्ध बिठाकर दाहिने हाथ के अंगूठे को क्षीरपात्र में डुबोंकर पात्र द्वारा खीर
soomooooooooooooo0000