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[ महामणि चिंतामणि
परोसने लगे। अक्षीणमहानसी लब्धि के प्रभाव से १५०३ तापसों ने पेट भर कर खीर का भोजन किया। गौतमस्वामी के बारे में यह पंक्ति चरितार्थ हुई
अंगूठे अमृत वसे, लब्धि तणा भंडार ।
ए गुरु गौतम समरिये, मनवांछित फल दातार ।। कहते हैं कि ५०१ तापस गौतम के गुणों से प्रभावित होकर पारणा करते हुए शुक्ल ध्यानारूढ हो केवलज्ञान को प्राप्त हुए। ५०१ भगवान महावीर की गुरुमुख से प्रशंसा सुन दूर से ही समवसरण देख कर रास्ते में ही केवलज्ञानी हुए। और शेष ५०१ प्रभु के समवसरण की शोभा एवं प्रभु की मुखमुद्रा देख कर केवलज्ञानी हो गये। गौतम इस बात से अनभिज्ञ थे। समवसरण में प्रवेश के बाद भगवान को वन्दना-प्रदक्षिणा कर सभी शिष्य केवली पर्षदा में जाकर बैठने लगे। गौतम ने उन्हें रोकते हुए कहा-"शिष्यो ! वह केवली पर्षदा है, वहाँ बैठकर केवलियों की आशातना मत करें। प्रभु ने गौतम को रोकते हुए कहा कि, ये सब केवली ही हैं। तुम उन्हें रोक कर आशातना मत करो। प्रभुमुख से जवाब सुन कर गौतम अवाक् देखते रह गये। मन ही मन अपने कैवल्य के लिये खिन्नता का अनुभव करने लगे। अहो! मुझे केवलज्ञान की प्राप्ति कब होगी! चिन्तातुर गौतम को देखकर प्रभु बोले-हे गौतम! चिरकाल के परिचय के कारण तुम्हारा मेरे प्रति उर्णाकर (
धोके छिलके समान) जैसा स्नेह है। इस लिये तुम्हें केवलज्ञान नहीं होता है। देव-गुरु-धर्म के प्रति प्रशस्त राग होने पर भी वह यथाख्यात चारित्र का प्रतिबन्धक है। जैसे सूर्य के अभाव में दिन नहीं होता, वैसे यथाख्यात चारित्र के बिना केवलज्ञान नहीं होता। अतः स्पष्ट है कि जब मेरे प्रति तुम्हारा उत्कट स्नेह-राग समाप्त होगा तब तुम्हें अवश्यमेव केवलज्ञान की प्राप्ति होगी। पुनः भगवान ने कहा- गौतम! खेद मत करो इस भव में ही मनुष्यदेह छुट जाने पर हम दोनों (अर्थात् तुम और मैं) समान एकार्थी होंगे-सिद्धक्षेत्रवासी बनेंगे। प्रभुमुख से ऐसे वचनों को सुनकर गौतम का विषाद समाप्त हुआ।
ईसा से ५१७ वर्ष पूर्व भगवान महावीर स्वामि का निर्वाण हुआ। निर्वाण के समय प्रभु ने गौतम को देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोधित करने के बहाने अपने से दूर भेजा। वही दूरी गौतमस्वामि को कैवल्यता देने वाली साबित हुई। प्रभु के निर्वाण से प्रशस्त राग का विसर्जन होते ही कार्तिक सुदि १ की प्रभात में केवली हुए। गुरु गौतमस्वामि ३० वर्ष के संयम पर्याय के बाद में केवली हुए। केवली होकर १२ वर्ष तक विचरण करते हुए महावीर प्रभु के उपदेशों को जन जन तक पहुँचाया। भगवान महावीर के १४००० साधु, ३६००० साध्वियों, १५६०० श्रावक एवं ३१८००० श्राविका रूप चतुर्विध संघ के तथा अन्य गणधरों के शिष्यों के वे एक मात्र गणाधिपति रहे। ६२ वर्ष की उम्र में अपने देह की परिपक्व अवस्था देख कर देहविलय हेतू राजगृह के वैभारगिरि पर आये और एक मास का पादपोपगमन अनशन स्वीकार कर कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा के दिन निर्वाणपद को प्राप्त किया। सिद्धबुद्ध मुक्त हुए। जैन परम्परा में गुरु गौतम के नाम से अनेक तप प्रचलित हैं-१ वीर गणधर तप, २ गौतम पडघो तप, ३ गौतम कमल तप, ४ निर्वाण दीपक तप। इन तपों की आराधना कर भव्यात्माएं मोक्षसुख की कामना करती हैं।