Book Title: Lalit Vistara
Author(s): Haribhadrasuri, Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 13
________________ संबन्धित बनाया जाए यह पेश करने योग्य है । इस बहुमूल्य ललितविस्तरा के रचयिता श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज का लेख सूत्र-सा है, शब्द संक्षिप्त व अर्थगंभीर हैं, न्याय भाषाबद्ध व रहस्यपूर्ण हैं । इसको यथार्थ समझने वाले भी तथाविध-प्रज्ञा-विद्वत्तासंपन्न ही हो सकते हैं। हमारे गुरु महाराज पू. पंन्यासप्रवर श्री भानुविजयजी गणीवर जो कि सिद्धान्त महोदधि पू. आचार्यदेव श्रीमद विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराजा के विद्वान शिष्यों में से एक हैं, उन्होंने सोचा कि इसे सामान्य बुद्धिवाले लोगों म भी ग्राह्य बनाया जाए तो उन्हें श्री अर्हत् परमात्मा व जैन दर्शन की असाधारण विशेषताओं का ठीक अवगम व इतर दर्शनों का ख्याल हो जाए, जिससे उनमें परमात्मभक्ति, प्रवचनराग, तत्त्वश्रद्धा व मार्गरुचि सुचारु रुप में विकस्वर हो उठे, एवं वे यथार्थ मोक्षमार्ग के प्रवासी बन जाए, ऐसी सद्भावनावश आपने गुरुकृपा से प्राप्त आगमबोध, दर्शनविज्ञान, तार्किकबुद्धि व मार्गानुसारी मति के आधार पर बिलकुल लोकभोग्य संस्कृत भाषा में श्री ललितविस्तरा का विवेचन लिखना प्रारंभ किया । किन्तु यहां ऐसा अनुरोध हुआ कि आज के युग में गृहस्थवर्ग में संस्कृतज्ञ लोग कितने ? ऐसे अनभिज्ञलोगों को इस महाकल्याणकारी शास्त्र का लाभ कहां से मिलेगा ? इसलिए विवेचन चालू भाषा में लिखा जाए । वर्तमान जैनमतावलम्बियों में अर्हद्भक्ति, अरिहंत के प्रति सक्रिय कृतज्ञभाव व सर्वज्ञोक्त तत्त्व श्रद्धा इत्यादि का सविशेष संवर्धन एवं अन्यों में अरिहंत व अहंदुक्त तत्त्व के प्रति आकर्षण करने हेतु यह सूचन ठीक प्रतीत हुआ । अतएव हिन्दी में ही यह विवेचन लिखा गया । इसे पढ़ने से पता चलेगा कि ग्रन्थकार महर्षि श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज ने बहुत थोड़े शब्द में लिखे हुए जटिल दार्शनिक पदार्थों व सूक्ष्म आगमिक तत्त्वों एवं उस पर आचार्य श्री मुनिचन्द्रसूरिजी महाराज के द्वारा न्यायशैली से अल्पशब्दों में लिखी गई पंजिका टीका का भी आपने सरल हिन्दी भाषा में कैसा सुन्दर बोधक व रोचक विवेचन किया है। विवेचन में नवतत्त्व, तत्त्वार्थ, कर्मग्रन्थ, योगबिन्दु, योगदृष्टि, षोडशक, पंचाशक, धर्मसंग्रहणी, श्राद्धविधि, इत्यादि कई जैनशास्त्र एवं सांख्य, योग, अद्वैत बौद्ध-न्याय व वैशेषिक दर्शनशास्त्रों के आधार पर पदार्थ-स्पष्टीकरण बहुत सरत्नभाषा में दिया गया है। विशेष आनन्द की बात यह है कि अहमदाबाद के वि.सं. २०१३ के चातुर्मास में पू. गुरुदेवश्री ने युवान शिक्षित श्रावकों को श्री ललितविस्तरा की वाचना दी, यह करीब १० मास तक चली । वाचना के अवतरण पर से तैयार किया गया विस्तृत व्याख्याग्रन्थ गुजराती भाषा में परमतेज भाग-१ के नाम से क्राउन साइझ ३५० पृष्ठ और उसका भाग-२ करीबन ५०६ पृष्ठ में प्रगट हो चुका है। अत इस शास्त्र का अधिक व्याख्याविस्तार उसमें से देखने योग्य है। यह ग्रन्थ अब मुद्रित रूप में जिज्ञासुओं के आगे प्रकाशित किया जाता है । प्रकाशन में एक और विशेषता यह है कि संस्कृत मूल ग्रन्थ एवं पंजिका टीका में भिन्न भिन्न विषयों के अलग अलग प्रेरेग्राफ दिये गए है और ये भी विषय-शीर्षक कोष्ठक में देने के साथ टीका में मूल के पदों को ब्लेक टाईप व परिवर्तित विराम (".....") inverted comas देकर इनके अर्थ को विराम से अलग बताये गये हैं। यह सब संस्कृत वाचक को आसानी से ग्रन्थ लगाने में अतीव उपयुक्त बना है । हिन्दी भाग में भी प्रत्येक विषय के अलग अलग पेराग्राफ विषयशीर्षक के साथ दिये गए हैं । ग्रन्थ के प्रारंभ में पृष्ठ-पृष्ठ के भिन्न भिन्न विषयों की निर्देशक विस्तृत विषय-सूची दी गई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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