Book Title: Lalit Vistara
Author(s): Haribhadrasuri, Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ होता है । जीव वहां भवविरागपूर्वक मोक्ष के प्रति कुछ दृष्टिवाला बनता है । लेकिन फिर भी वहां असर्वज्ञप्रणीत एकान्तवादी लौकिक-दर्शनों के अन्यतम में रुक जाने से उसे सर्वज्ञप्रणीत अनेकान्तवादी लोकोत्तर दर्शन का दर्शन भी प्राप्त होना मुश्किल है, तो दर्शन की श्रद्धा का तो पूछना ही क्या ? लेकिन हमें विश्वास है कि ललितविस्तरा महाशास्त्र में वर्णित उपर्युक्त विशेषताओं का अगर मध्यस्थ भाव से परामर्श किया जाय तो वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा क गति अनन्य आकर्षण एवं उनके अनेकान्तवादी दर्शन का ठीक मूल्यांकन हो उन दोनों पर अनन्य श्रद्धा लग जायगी। इसके सहारे से भौतिक-वैज्ञानिक दृष्टि, वैभव-विलास का आकर्षण, अहंत्वपोषक लालसा, जड़पूजा इत्यादि आज की विषमय संस्कृति पर की आस्था हट कर पवित्र प्राचीन आत्मवादी कल्याण संस्कृति पर श्रद्धा जम जायगी । और जीवन में परलोकदृष्टि, अनन्य अर्हद्-भक्ति-उपासना, संवेग, वैराग्य, नम्रता-लघुता, जिनाज्ञापालन वगैरह प्रधान बन जायेंगे। ___ पुरुषविश्वासे वचन विश्वास - इस न्याय के अनुसार अगर वीतराग श्री अरिहंत प्रभु पर आस्था जम जाए तो उनके वचन पर श्रद्धा होना आसान है। इसलिए भगवान पर विश्वास होना आवश्यक है । विश्वास होने के लिए उनकी ठीक पहिचान होनी चाहिए । श्री ललितविस्तरा महाशास्त्र में अर्हत्स्तव सूत्रों के विवेचित अद्भुत भावों के परिशीलन से श्री अर्हत् परमात्मा की अनंतगुणगणालंकृत अचिन्त्य अमेय सर्वतोमुखिकल्याणसमर्थ - प्रभावसंपन्न, वास्तव मोक्षमार्गदायक व यथास्थित - विश्वतत्त्वप्रकाशक इत्यादि लोकोत्तर अनन्य देवाधिदेव के रूप में ऐसी पहिचान होती है कि अर्हद् भगवान् के प्रति सर्वेसर्वा श्रद्धा प्रकट हो जाती है। इतना ही नहीं किन्तु यह ज्ञात होता है कि हमें इस मनुष्य भव, पञ्चेन्द्रियपटुता, आर्यकुल इत्यादि पुण्यसामग्री एवं अर्हत् प्रभु का आलंबन व प्रवचन प्राप्त होने में हमारे पर भगवान का कितना अगणित उपकार है । इस से भगवान के प्रति ऐसा कृतज्ञभाव जाग्रत हो उठता है कि उस उपकृततावश सर्वस्व समर्पित करने की भावना बन जाती है । ऐसा कृतज्ञभाव आराधना के मूल में आवश्यक है, क्योंकि उसके आधार पर निराशंसभाव से उत्तेजित आत्महित साधना का पुरुषार्थ प्रगट होता है । __ श्री चैत्यवंदन सूत्रों पर श्री आवश्यक टीका में एवं नमुत्थुणं सूत्र पर श्री भगवती (व्याख्या प्रज्ञप्ति) सूत्र व श्री कल्पसूत्र की टीकाओं में शब्दार्थ बतलाये गये हैं किन्तु श्री ललितविस्तरा में सूत्रों के प्रत्येक पद पर गर्भित भव्य दार्शनिक रहस्यों के तार्किक शैली से उद्घाटनार्थ ऐसा ललित (सुन्दर) विस्तार किया गया है कि ग्रन्थ का नाम ललितविस्तरा सान्वर्थ है । अलबत्ता बौद्धों का भी एक ललित विस्तरा नामक ग्रन्थ है, लेकिन नामकरण में किसने दूसरे का अनुकरण किया इसकी चर्चा का कोई विशेष उपयोग नहीं । सही बात है कि महापुरुषों के आध्यात्मिक ग्रन्थ जीवनसरणी में तत्त्वसरणी को आतानवितान बुनने के लिए हैं; हेय तत्त्वों का आत्मा से पृथग्भाव एवं उपादेय तत्त्वों को आत्मसात् करने हेतु है । वहा ग्रन्थ का नाम अनुकृत है या अनुकारी ? इस चर्चा का क्या उपयोग ? वैसे ही आज की संशोधन शैली के अनुसार ग्रन्थकार छठी शताब्दी में हुए या आठवीं नवमीं में ? ग्रन्थ की भाषा कैसी ? ग्रन्थ रचना के समय में देशकाल कैसे ? ग्रन्थकार पर किसका असर है ? इत्यादि पर की जाती चर्चा व इसमें प्रस्तावना के भरे जाते कई पृष्ठों का लेख हमें तो कोई उपयुक्त नहीं प्रतीत होता है । इसके बजाय तो ग्रन्थ के पदार्थों का सरल विभागीकरण, सरल रुप में सार-प्रतिपादन, रहस्योद्घाटन एवं जीवन में उनको कैसे Jain Education International ११ For Privatè & Personal Use Only - ''www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 ... 410