Book Title: Lalit Vistara
Author(s): Haribhadrasuri, Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 10
________________ के लक्षण, ज्ञान प्राप्ति-परिणमन के अव्यभिचारी उपाय, वगैरह महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक पदार्थों पर भव्य प्रकाश डाला है। आगे अरिहंत चेइयाणं आदि सूत्रों के विवेचन में आपने तार्किक चर्चा पुरस्सर अनेक साधनाओं व तात्त्विक पदार्थों का दिग्दर्शन कराने में भी जैन दर्शन का प्रमाणसिद्ध स्वतंत्र असाधारण दृष्टि का काफी परिचय दिया है। इस महाशास्त्र के मूल्यवान विषयों का परिचय विभागश: संक्षेप में इस प्रकार किया जा सकता है । धर्म :- धर्म के अधिकारी का स्वरुप व लक्षण, धर्मबहुमान युक्त धर्मविधिसावधान व उचितवृत्ति का परिचय, धर्म के बीज-काण्ड-ताल-पत्र-पुष्प-फल, प्रार्थना, प्रणिधान का ११ द्वार से परिचय, धर्म के ४ प्रकार, - ५. दानादि धर्म, २. सम्यग्दर्शनादि धर्म, ३. साश्रव-निराश्रव धर्म, ४. योगात्मक धर्म, धर्मयोग्य आत्मोन्नति के परार्थ व्यसनितादि १० गुण व आत्मपराक्रम के शौर्यादि १० उपाय, साधनाविशुद्धि के ३ अंग, - उपादेय बुद्धि, मंज़ाविष्कम्भण, आशंसात्याग, साधनामयता के ३ उपाय, दीर्घकाल सत्कार व सातत्य से आसेवन, श्रावक के १२ व्रत - ११ पडिमा, साधुधर्म, इच्छायोग-शास्त्रयोग-सामर्थ्य योग, धर्मसन्यास, योगसन्यास, प्रातिभज्ञान, क्षपकश्रेणि, क्षायोपशमिक व क्षायिक धर्म, अपूर्वकरण, आयोज्यकरण, शैलीशीकरण, केवलिसमुद्घात, महासमाधि, कायोत्सर्ग, भवनिर्वेदादि, इच्छा-प्रवृत्ति-स्थैर्य-सिद्धि । धर्मनायकत्व के लिए आवश्यक धर्मवशीकरण - क्षायिकधर्मप्राप्ति - धर्मफलभोग - धर्मअविघात प्रत्येक के ४-४ लक्षण, धर्म का अन्यों में सम्यक् प्रवर्तन-पालन-दमन के उपाय, चारित्र में दानादि धर्म, दानादि ४ धर्म से ४ संज्ञानाश व मिथ्यात्वादि कर्म हेतुओं का नाश । ___ अरिहंत :- अर्हत् परमात्मा की अनन्य स्वतंत्र विशेषताएँ, जैसे कि अनन्य योग-वीर्य-ऐश्वर्यादितीर्थङ्करत्व - स्वयंबुद्धत्व - परार्थव्यसनितादि, सिंहवत् कर्मनाशक शौर्यादि, अनंतज्ञान, ३५ गुणयुक्त विशिष्टवाणी, ३४ अतिशय, यथार्थविश्वतत्त्वप्रकाशकता, अनेकान्तादि सिद्धान्तप्ररुपकता, अभय-चक्षु-मार्ग-शरण-श्रुतधर्म-चारित्रधर्मदातृत्व, गुणसिद्धलक्षणोपेत वास्तव धर्मनायकत्व - धर्मसारथित्व - धर्मचक्रवर्तित्व, परमात्मा का विजातीय निमित्तकर्तृत्व, वारतवनाथता, प्रद्योतकरता, वीतरागता से अप्रतिकूल आशंसाविषयता । परमात्मभक्ति का विशिष्ठ स्वरूप :- भवनिर्वेदात्मकभगवद्बहुमान - दर्शनादि की विशिष्ट भावनाएँ, ४ प्रकार की पूजा - पुष्प - आमिष - स्तोत्र - प्रतिपत्ति व वंदन - पूजन - सत्कार - सन्मान, द्रव्यस्तव - भावस्तव, पूजा-सत्कारलालसातिरेक, पूजा में यतना, तत्त्वाविरुद्धहृदय, जिनप्रतिमा निर्माण-प्रतिष्ठा, चैत्यवन्दना की विधि, स्तोत्र का स्वरूप, निर्दोष सद्भूत विशेषण उपमायुक्तता, योगवृद्धि, अन्यों के योग का अव्याघात, सर्वजिन-वंदनादि निमित्तक कायोत्सर्ग, जिनाज्ञाधीनता - बोधि की उच्च उच्च कक्षा, ध्यान के उपाय व स्वरूप, रागद्वेष-मोहगर्भ आशंशा से भिन्न अर्हत् कृपा की आशंसा ।। जैनदर्शन की विशेषताएं :- दृष्टेष्ट - अविरुद्ध वचन, कष-छेद ताप व परस्पर अविसंवादी आदि-मध्यअंत इन त्रिकोटि में परिशुद्ध जैन आगम, उत्सर्ग-अपवाद की विशिष्ट मर्यादा (गुरुलाघव विचार) उत्सर्गोद्दशसाधक अपवाद, इतरदर्शन-व्यापिता, प्रवचन गांभीर्य, हेतु-स्वरूप फलशुद्ध अनुष्ठान, प्रवचन मालिन्यवारण, रखलना के पूर्व प्रतिकार, भिन्नाभिन्न सामान्य विशेष, विशिष्ट अनेकान्तवादादि सिद्धान्त, विशिष्ट तत्त्व व प्रमेय । विशिष्ट सिद्धान्त :- अनेकान्तवाद, आत्मादि द्रव्यों का उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य व नित्यानित्यत्व, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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