Book Title: Lalit Vistara
Author(s): Haribhadrasuri, Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 9
________________ दुराचार का गम्भीर रोग प्रविष्ट हो गया है । इससे स्पष्ट है कि इस दुर्दशा का प्रतिकार विशिष्ट आध्यात्मिक साहित्य के प्रचुर प्रचार से ही हो सकेगा । मानव भव जैसे सर्वोच्च स्तर पर पहुंचे हुए प्राणिगण का कल्याण इसी से हो सकता है । यों तो आज जैनेतर आध्यात्मिक साहित्य का प्रचार होने लगा है, फिर भी वह एकान्त दर्शन अर्वाग्दर्शी ( असर्वज्ञ) के तत्त्व की नींव पर निर्मित होने की वजह से सर्वाङ्गदर्शी जिज्ञासु के हृदय को तृप्ति नहीं दे सकता | इसीलिए आध्यात्मिक साहित्य अनन्तदर्शी से उपदिष्ट तत्त्व व मोक्षमार्ग के आधार पर रचित हो, जिसमें प्रतिपादनों का आमूलचूल अविसंवाद व युक्तिसिद्ध निर्दोष परमात्मस्वरूप, अनेकान्तमय जीवाजीवादि तत्त्व, , और अहिंसामय अनेकविध ज्ञानादि आचार एवं साधना मार्ग जैसे कि हेतु स्वरूप - फलशुद्ध योग-ध्यान-भक्ति-विरति इत्यादि वर्णित हो वैसा ही साहित्य जिज्ञासा को तृप्त कर जीवनोत्थान के प्रेरणा प्रदान पूर्वक उसका दिग्दर्शन करा सकता है । अनन्तदर्शी तीर्थंकर भगवान के अनेकान्तवादी व स्व- पर अहिंसाप्रधान शासन में इन विषयों के प्रतिपादक कई आगम व शास्त्र हैं। इनमें श्री ललितविस्तरा एक विशिष्ट कोटि का शास्त्र है । इसके रचयिता प्रकाण्ड विद्वान, स्वपरागममर्मज्ञ, समर्थ तार्किक, १४४४ शास्त्र सूत्रधार आचार्य भगवान श्री हरिभद्र सूरीश्वरजी महाराज है । आपकी असाधारण प्रतिभा व सूक्ष्मतत्त्वावगाहक शक्ति इस ग्रन्थ में भी स्पष्ट द्योतित हो रही है । यह ग्रन्थ नित्य विहित चैत्यवन्दन के मङ्गलमय भक्ति अनुष्ठान में उपयुक्त प्रणिपात दण्डक सूत्र ( शक्रस्तव, अपरनाम नमोत्थुणं) चैत्यस्तव (अरिहंत चेइयाणं) चतुर्विंशति स्तव (लोगस्स) श्रुत स्तव (पुक्खर वर) सिद्धस्तव (सिद्धाणं बुद्धा), प्रणिधानसूत्र ( जयवीयराय) इत्यादि के विवेचन स्वरूप है । इन सूत्रों में प्रधान सूत्र प्रणिपात दंडक सूत्र वीतराग सर्वज्ञ श्री अरिहंत परमात्मा की स्तुतिरूप है । श्री अरिहंत भगवान अतीत अनन्त काल में अनन्त हो चुके, वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र में बीस विहरमान है, भविष्यकाल में अनन्त होंगे। जैन दर्शन की यह विशेषता है कि परमात्मपद का सर्वाधिकारी किसी एक को नहीं माना है। यह तो कहता है कि अनादि काल से इतर जीवों की अपेक्षा जात्य रत्न की तरह विशिष्ट योग्यता संपन्न होती है, वह स्वकीय विशिष्ट योग्यता व पुरुषार्थ वश कालक्रम से परमात्मपन के उच्च स्तर पर पहुंचती है। ऐसे जीव अन्तिम भव के पूर्व तृतीय भव में अरिहंत - सिद्ध प्रवचन - आदि वीसस्थानक के एक या अनेक पद की ज्वलन्त उपासना करके अर्हत्पद प्रापक तीर्थंकर नामकर्म संज्ञक उत्कृष्ट पुण्य उपार्जन करते हैं। बाद में अन्तिम भव में जब यहां भरत, ऐरवत या महाविदेह क्षेत्र में अवतरण पाते हैं, तब इन्द्र अवधिज्ञान से जानकर सिंहासन से नीचे उत्तर करके प्रस्तुत प्रणिपात दण्डक सूत्र से भगवान की स्तुति करता है । चैत्य अर्थात् अर्हत् प्रतिमा को वन्दना करने के लिए भी इसी सूत्र का उपयोग होता है । सूत्र के विवेचन में श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज ने पद पद पर (१) दार्शनिक विचारधाराओं की तटस्थ भाव से तर्कपूर्ण समीक्षा (२) अर्हत्परमात्मा के विशिष्ट स्वरूप-शक्ति आदि का सतर्क प्रतिपादन (३-४) आत्मोत्थान के विविध उपाय, क्रमबद्ध साधनामार्ग, जैन दर्शन की विशेषताएँ व अनेक सिद्धान्त इत्यादि का तर्क सहित व्यवस्थापन अद्भुत शैली से किया है। इतना ही नहीं, ग्रन्थ की भूमिका में आपने चैत्यवन्दन का माहात्म्य, धर्म के अधिकारी ८ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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