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गुणपर्यायों का संवलन, द्रव्यपर्याय उभयरूप से वस्तु एकानेकस्वभाव, आत्मा का मौलिक-विकृत स्वरूप, कर्मसिद्धान्त, आत्मा-कर्मपुद्गल दोनों में बन्ध योग्यता, ज्ञान-ज्ञेय दोनों में परस्पराकार परिणति, वाचकशब्दवाच्यपदार्थ दोनों में अभिधेय-अभिधायकाकार परिणमन, प्रमाण-नय व्यवस्था, पंचकारण, समवाय, विशिष्ट शक्ति से भी वस्तुस्वभाव अपरिवर्तनीय, परिणामी उपादान, कार्य प्राप्ति से विलक्षण कार्यपरिणमन |
विशिष्टतत्त्व व प्रमेय :- जीवाजीवादि ७ तत्त्व, धर्मास्तिकायादि ६ द्रव्य, स्व-पर पर्याय, शब्द-अर्थ पर्याय, आत्मा के षट्स्थान, आत्मा में षट्कारक, आत्मोत्क्रान्ति के क्रमिक १४ गुणस्थानक, १५ प्रकार से सिद्ध (मुक्त) स्त्री मुक्ती, भव्यत्व-अभव्यत्व, ज्ञानावरणीयादि ८ प्रकार के मूल कर्म, प्रकृति-स्थिति-रस-प्रदेश व बंध, उदयउदीरणा-संक्रमणादि विस्तृत प्रक्रियायुक्त कर्माणुतत्त्व, बद्धस्पृष्ट निधत्त - निकाचित कर्म, सानुबन्ध-निरनुबन्ध कर्मबन्ध, सानुबन्ध-निरनुबन्ध कर्मक्षयोपशम, उपशम क्षयोपशम-क्षय, क्षपकश्रेणि, विशिष्ट द्विविध कैवल्य, सांव्यावहारिक अव्यवहारिक जीवराशि, दर्पणादि में प्रतिबिम्ब यह छाया पुद्गल है, औदयिक-पारिणामिकादि ५ भाव, सप्तनय, निश्चय - व्यवहारनय, द्रव्येन्द्रिय - भावेन्द्रिय, ८ कर्मो के बन्ध हेतुओं के प्रतिपक्ष उपाय |
कई चर्चाएँ :- द्रव्यस्तव में हिंसा दोष क्यों नहीं ? आगम पौरुषेय कैसे ? सामान्य-विशेष, द्रव्य-पर्याय, द्रव्य-गुण व कार्य-कारण में भेदाभेद कैसे ? शब्द वाच्य में क्रम-अक्रम कैसे ? ज्ञानक्रिया उभय से मोक्ष क्यों ? परमात्मा व मुक्तात्मा में अवतारवाद क्यों नहीं ? ज्ञान में साकारता-निराकारता कैसे ? इत्यादि ।
___ जैनेतरदर्शन :- सांख्य दर्शन के २५ तत्त्व, आत्मा में अकर्तृत्व, ज्ञान यह जडप्रकृति-बुद्धि का धर्म, न्याय-वैशेषिकदर्शन-आत्मा विभु (व्यापक), कार्य-कारण व द्रव्यगुण सर्वथा भिन्न, ज्ञान परतो ग्राह्य, वेदान्त-दर्शन-अद्वैतवाद, परमब्रह्म में मुक्तात्मालय, अवतारवाद, वेद अपौरुषेय, मीमांसा दर्शन-ज्ञान स्वयं परोक्ष, बौद्धदर्शन-माध्यमिक, विज्ञानवादी योगाचार, सौत्रान्तिक, व वैभाषिक शाखा, क्षणिकवाद, पूर्वक्षण ही ___उपादान कारण, वस्तु एक स्वभाव, वासनामूलक विविध व्यवहार, ज्ञान में प्रतिबिम्बसंक्रम निषेध, 'अक्रमवत् असत्' दर्शन, सांकृत्यमत - स्तुति में उपमा अघटित गोपेन्द्र परिव्राजक मत- धृति, श्रद्धा, सुख, विविदिषा, विज्ञप्ति अनंत का मत - ऋतुवत् संसारावर्त, तत्त्वान्तवादि मत, कल्पित अविद्या
इन विषयों से अवगत होता है कि श्री ललितविस्तरा ग्रन्थ कितने गंभीर, आध्यात्मिक तत्त्वों से भरा हुआ महाशास्त्र है । इसके लेन में प्रधान रूप से वीतराग सर्वज्ञ श्री अर्हत् परमात्मा, अनेकान्तवादी श्री जैनदर्शन व अहिंसा-संयम-तपप्रधान श्री जैनधर्म की विश्वश्रेष्ठ विशेषताएँ कूट कूट कर भरी पड़ी है । संसारी जीव अनंतानंत काल से असंख्य कुवासना, आहार-विषय-परिग्रहादि संज्ञा, रागद्वेषादि कषायावेश व मिथ्यामतिवश संसार की ८४ लक्ष योनियों में भटकता रहा है। वहां उन कड़े दोषों की निवृत्ति होने पर उन्हें आत्मिक उत्क्रान्ति का अवसर प्राप्त
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