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परिवार की एक आधार-स्तंभ नारी भी उद्देश्यहीन जीवन जीती है । सुबह उठते ही मकान में झाडू-पौंछे लगाना, बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करना, पति को दुकान भेजना, दिन में खाना बनाना, गेहूँ बीनना, शाम को फिर पति की सेवा करना, बस इसी में सिमट कर रह गया है नारी-जीवन । पुरुष भी उसी तरह मायाजाल में उलझा है । व्यक्ति का जीवन निरुद्देश्य-लक्ष्यहीन हो गया है।
बगैर लक्ष्य का जीवन तो पशु-तुल्य है । पशु भी हमारी ही तरह पैदा होते हैं, पेट भरते हैं, बच्चे पैदा करते हैं और एक दिन देह छोड़ जाते हैं । फिर हममें और पशु में फर्क क्या रहा? आदमी का जीवन पशु की तरह ही हो गया है । जिस शिक्षा को पशुता को कम करना चाहिए था, वह भी दिशाहीन हो गई है। शिक्षा मनुष्य को जीने की कला सिखाती है, अन्तर्-दृष्टि देती है, लेकिन वह शिक्षा रोजी-रोटी कमाने तक ही सीमित हो चुकी है । आज की शिक्षा एम.ए. बना देती है, एम.ए.एन. नहीं बना पाती । आदमी को आदमी बना दे, इसी में शिक्षा की अर्थवत्ता है ।
शिक्षा कमाने के लिए ही न हो । एक अनपढ़ मजदूर भी अपना पेट पाल लेता है और एक बुद्धिहीन जानवर भी अपना पेट भर लेता है । इंसान कुछ पल के लिए शांत-चित्त होकर सोचे कि क्या पेट भरना और पेट भरने के लिए दिन-रात जुटे रहना ही जीवन का उद्देश्य है ? निरर्थक जीवन मत जीओ, अपने जीवन में कुछ सृजन करो, धरती को थोड़ा प्रमुदित करो, अपनी ओर से कुछ फूल खिलाओ । कविता के छंदों की तरह लयबद्ध होओ, संगीत जैसा अपने आपको स्वरूप दो।
शिक्षा को हमने रोजगार के साथ जोड़ा है, जीवन के साथ नहीं जोड़ा। शिक्षा जीवन के साथ जुड़े और आदमी को यह समझ दे कि उसके जीवन का कोई लक्ष्य है । बगैर लक्ष्य का जीवन जीओगे तो वह भारभूत हो जाएगा। आप ज़रा सोचें कि ईश्वर ने आपको पूरे सौ वर्ष की जिंदगी दी है । क्या सौ साल की जिंदगी भी अपर्याप्त है ? आप अपनी जिंदगी में जीते-जी ऐसे इंतजाम कर लें कि मौत जिंदगी के द्वार पर आ खड़ी हो, तो कोई शिकवा न रहे । केन्द्रीकरण हो शक्ति का
___जिंदगी का पूरा-पूरा उपयोग हो । उसके हर अंश का, हर कतरे का । हम मरने के लिए नहीं जी रहे हैं, जीने के लिए जी रहे हैं । जीवन कभी भी क्षणभंगुर
लक्ष्य बनाएँ, पुरुषार्थ जगाएँ .n
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