Book Title: Lakshya Banaye Purusharth Jagaye
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 68
________________ रोक लिया और निवेदन किया कि वापस सब लोग नीचे उतर जाएँ, क्योंकि मुझे कुछ अनहोनी-सी स्थिति लग रही है । काफी चढ़ाई चढ़ चुके थे, पर मेरे निवेदन पर सभी जन नीचे उतर आए। __तीन दिन बाद वापस चढ़ना शुरू किया । कोई छ: से सात किलोमीटर की यात्रा पूरी की होगी कि अचानक तेज सनसनाहट के साथ हवा आई और उस तेज हवा के साथ एक भयंकर मूठ आकर मुझ पर गिरी । मैं वही धड़ाम से गिर पड़ा। मुँह से खून की उल्टी होने लगी। मैंने अपनी परा शक्ति का स्मरण किया। न जाने कहाँ से जलती हुई आग मेरे हाथों में आई और मैंने उस आग से मूठ की काट की। सारा रास्ता जैसे-तैसे कर पार हो गया। लेकिन फिर तो मेरी हालत यह हो गई कि मुझे लगता कि दिन हो या रात, कभी भी-किसी भी क्षण कुछ भी हो सकता है। मेरी सारी योग-शक्तियाँ लगाने के बावजूद मुझे लगा कि मेरे साथ कुछ ऐसा हो रहा है, जिसे मैं जीत नहीं पा रहा हूँ । मेरे चित्त में भय की ग्रंथि बन चुकी थी। बाद में तो स्थिति यह हो गई कि अगर मैं जंगल से भी गुजरता और तेज हवा भी चल पड़ती, तो मुझे लगता कुछ-न-कुछ गड़बड़ी है। मेरे लिए अब बड़ा मुश्किल हो गया। इसी तरह पाँच-छ: महीने बीते कि तभी संयोग से मझे एक ऐसी पुस्तक मिली कि मेरे मन का कायाकल्प हो गया। यह किताब थीश्रीमद्भगवद्गीता। मैंने उसे खोला, दृष्टि दूसरे अध्याय के एक श्लोक पर जा टिकी । उस श्लोक ने मेरे चित्त की अभय-दशा को जाग्रत कर दिया; मेरी अन्तरात्मा में पुरुषत्व को जगा दिया। मेरे मन में घर कर चुकी नपुंसकता दूर हो गई। मैंने स्वयं यह संकल्प लिया, खड़ा हुआ और कहा कि देखता हूँ अब कौन-सी ताकत है जो मुझसे बढ़कर निकल सके । गीता का वह श्लोक मेरे जीवन के पुरुषार्थ को जगाने का परम आधार बना । वह सूत्र था क्लैव्यं मा स्म गम: पार्थ, नैतत्त्वय्युपपद्यते । क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं, त्यक्त्वोतिष्ठा परंतपः ॥ कृष्ण ने कहा—'ओ मेरे पार्थ, अपने हृदय की तुच्छ दुर्बलता का त्याग कर । क्यों तू अपने आपको नपुंसक बना रहा है ? खड़ा हो और देख, तुझे युद्ध के लिए पुकारा जा रहा है । तू अपने कर्त्तव्य के लिए सन्नद्ध हो जा । जाग्रत हो और अभय-दशा को प्राप्त कर । मैं तुम्हारे साथ हूँ।' ६१ MORN लक्ष्य बनाएँ, पुरुषार्थ जगाएँ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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