Book Title: Lakshya Banaye Purusharth Jagaye
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 55
________________ रहूँगा । मैं जानता हूँ कि मेरे मौन ने मुझे कितना सुकून, माधुर्य, अन्तरात्मा का आनंद दिया है । अपने मौन के दौरान मैंने सदा यह बोध बनाये रखा कि चाहे दुनिया मरे या जिए, चाहे जलजला आए या कयामत; मैं हर स्थिति में शान्त और मौन रहूँगा । परिणामत: किसी भी तरह की प्रतिक्रिया मेरे चित्त में नहीं होती । मैं सहज ही शान्त हूँ, सुखी हूँ । मैंने मौन रहकर जाना है कि जो व्यक्ति अपने आपको प्रतिक्रियाओं से बचाकर रखता है, वह कितना सुखी है। उसके जीवन में सदा गुलाब के फूलों की सुवास रहती है । जो व्यक्ति अपने आप में हर प्रतिक्रिया के बदले में सकारात्मक और तटस्थ रहता है, उसकी मुस्कान में भी चाँद-तारों का सौंदर्य और फूलों की सुगंध रहती है। आप अगर चाहते हैं कि हकीकत में अपने मन में सामायिक और गीता के समत्वयोग को अपने जीवन में आचरित कर लें तो सीधा-सा सूत्र होगा — अपने आपको प्रतिक्रियाओं से मुक्त और निरपेक्ष रखें । दमन नहीं, सुधार हो डाँट-डपटकर किसी को नहीं सुधारा जा सकता, न पिता अपने पुत्र को इस तरह सुधार सकता है, न सासें बहुओं को । अगर बेटे के द्वारा काँच की गिलास टूट जाए तो आग-बबूला होने की आवश्यकता नहीं है । आज क्रोध किया, गालियाँ निकालीं, तो संभव है, कल आपका बेटा भी क्रोध करेगा, संभव है कि वह आपके खिलाफ कोई विद्रोह कर दे। जब आपके पैर से फूलों का गुलदस्ता टूटा था, तब आपका बेटा शांत रहा था, आपकी मान - मार्यादा की रक्षा की थी, फिर आप क्यों इतने उतावले हैं ? याद रखें, किसी स्प्रिंग को जितना दबाओगे, स्प्रिंग उतनी ही बलवती होगी, वह उतने ही जोर से उछलेगी । थोड़ा धीरज रखो और बेटे को अवसर दो कि उसे अपनी गलती का अहसास हो, अपराध-बोध हो । तब वह मन-ही-मन कह उठेगा- 'सॉरी, यह गलती फिर नहीं होगी ।' किसी की चार गालियाँ किसी और को नहीं सुधार सकती, वरन् स्वयं में जगने वाला अपराध-बोध ही व्यक्ति को सुधारता है । तब आइंदा उसके पाँव से काँच की गिलास नहीं टूटेगी । होने वाली गलती के बोध का मौका दो । हाँ, अगर लगे कि दसों बार अवसर दिया, फिर भी वही गलती हो रही है तो तुम्हें डाँट-डपट का अधिकार है । पिता पुत्र से प्यार भी करे मगर उतना भी नहीं कि कल इसके 1 प्रतिक्रियाओं से परहेज रखें Jain Education International For Personal & Private Use Only ४८ www.jainelibrary.org

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