Book Title: Lakshya Banaye Purusharth Jagaye
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 62
________________ सामने एक संत, एक मुनि को पाया । सम्राट के कदम रुक गये । वह चौंका-ओह, मेरे द्वारा तो महान् अनर्थ हो गया। मैंने मुनि की हिरणी की हत्या कर डाली । अब मुझे निश्चय ही मुनि के अभिशाप का पात्र बनना पड़ेगा। संत का शाप कभी निष्फल नहीं जाता और आज मुझे ये शाप देकर ही रहेंगे। संत गर्दभिल्ल की दयाभरी दृष्टि हिरणी पर पड़ी । सारे संसार से निर्लिप्त और अनासक्त होने के बावजूद किसी को अपने पाँवों में गिरकर प्राणों की आहुति देते हुए देखकर संत की आँखें भर आईं । संत के हृदय से उमड़े उन आँसुओं ने हिरणी के मस्तक का अभिषेक किया। सम्राट संजय मुनि के पाँवों में गिर पड़ा—'मुझसे जो अपराध हुआ है, उसके लिए सम्राट अपना मुकुट आपके चरणों में रखकर माफी चाहता है । क्षमा करें, मुनिवर, क्षमा करें।' सम्राट की याचना सुनकर संत ने जो शब्द कहे, वे आज भी सामयिक व प्रासंगिक हैं। वे शब्द विश्व-शांति और प्रेम का आधार बन सकते हैं। संत ने कहा—'ओ पार्थिव, अगर तू किसी से अभय चाहता है तो तू स्वयं अभयदाता बन । इस अनित्य जीवलोक में तू क्यों हिंसा में आसक्त हुआ चला जा रहा है ? चार दिन का जीना तेरा है और चार दिन किसी अन्य का ही। इस चार दिन के जीवन में तू क्यों अपने आपको हिंसा, परिग्रह और वैमनस्य में झौंक रहा है ! अगर तू अपने लिए अभयदान चाहता है तो तू भी इन सारे निरीह प्राणियों का अभयदाता बन।' अहिंसा : अभय की नींव हिंसा भय को जन्म देती है और अहिंसा अभय को । अहिंसा अभय की नींव है और अभय अहिंसा की अभिव्यक्ति । जो भयभीत है, उसकी अहिंसा कायरता है । जो निर्भय है, उसकी अहिंसा आत्म-गौरव है। यदि कोई भयवश ईश्वर को धोकता है, तो उसकी आस्थाएँ कभी भी खंडित हो सकती हैं । जो भय के कारण पाप से डरता है, उसके पुण्य में भी पाप छिपा रहता है । डरपोक लोगों को जीने का हक नहीं है । उन्हें लोग जीने भी नहीं दे सकते । भय का भूत भगे, तो ही सच्चाई का सूर्योदय सम्भव हो सकेगा। __अहिंसा की विजय ‘हिंसा की रोकथाम' के नारों से नहीं होती । जीवन में हिंसा का आमूलचूल मिटाव करने से ही अहिंसा की विजय संभावित है । सम्राट ५५ Som लक्ष्य बनाएँ, पुरुषार्थ जगाएँ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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