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भय का भूत भगाएँ
गाज अपनी बात एक प्राचीन घटना से प्रारंभ करूँगा। सम्राट संजय
'हरिणों का शिकार खेलने के लिए अपने नगर से रवाना हुए। कांपिल्यनरेश ने सारे जंगल को छान मारा, मगर उन्हें शिकार नसीब न हआ । उनका घोड़ा सरपट दौड़ता रहा । अचानक उन्होंने केशर-उद्यान में प्रवेश किया कि उनकी नज़र हरिणों के एक झुंड पर पड़ी।
घोड़े के टापों की आवाज़ सुनकर हरिणों में भगदड़ मच गई । वे भाग खड़े हुए। एक गर्भवती हिरणी तेजी से भागने में असमर्थ थी । वह पूरी कुलांचे नहीं भर पा रही थी। सम्राट संजय ने अपना तीर-कमान उठा लिया। तीर उसके हाथ से छूट पड़ा और सीधा गर्भवती हिरणी के पेट में जा धंसा । वह दर्द से कराह उठी, फिर भी दौड़ती रही । हिरणी आगे-आगे, सम्राट का घोड़ा पीछे-पीछे । अचानक हिरणी एक पेड़ की छाँव में पहँची और वहाँ साधनारत संत गर्दभिल्ल के चरणों में जा गिरी।
संत के चरणों में घायल हिरणी ने अंतिम साँसें लीं । संत की आँखें खुलीं, तो अपने सामने एक मृत हिरणी को पाया। तभी देखा कि कोई शिकारी सम्राट, इसी हिरणी का पीछा करता हुआ इसी ओर चला आया है । सम्राट ने भी अपने
भय का भूत भगाएँ
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