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वार्म का बहुत ही विस्तार के साथ वर्णन दिया गया है। कर्म का सूक्ष्मातिसूक्ष्म और अत्यन्त गहन विवेचन जैन आगमों में और उत्तरवर्ती ग्रन्थों में प्राप्त होता है । वह प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में होने के कारण विद्वद्भोग्य तो है, पर साधारण जिज्ञासु के लिये दुबोध है । थोकड़ों में कर्म सिद्धान्त के विविध स्वरूप का वर्णन प्राचीन आचार्यों ने गंथा है, कण्हस्थ बारने पर साधारण तत्त्व-जिज्ञासु के लिये अच्छा ज्ञानदायक सिद्ध होता है ।
कर्मसिद्धान्त के प्राचीन ग्रन्थों में कर्मग्रन्थ का महत्वपूर्ण स्थान है । श्रीमद् देवेन्द्रसूरि रचित इस बांध भाः अपना ही महापूर्ण हैं। इनमें जैनदर्शनसम्मत समस्त कर्मवाद, स्थान, मार्गणा, जीव, अजीव के भेद-प्रभेद आदि समस्त जनदर्शन का विवेचन प्रस्तुत कर दिया गया है । ग्रन्थ जटिल प्राकृत भाषा में है और इसकी संस्कृत में अनेक टीकाएँ भी प्रसिद्ध हैं। गुजराती में भी इसका विवेचन काफी प्रसिद्ध है। हिन्दी भाषा में इस पर विवेचन प्रसिद्ध विद्वान मनीषी पं० श्री मुखलालजी ने लगभग ४० वर्ष पूर्व तैयार किया था ।
वर्तमान में कर्मग्रन्थ का हिन्दी विवेचन दुप्प्राप्य हो रहा था, फिर इस समय तक विवेचन की शैली में भी काफी परिवर्तन आ गया। अनेक तत्त्व जिज्ञासु मुनिवर एवं श्रद्धालु श्रावक परम श्रद्धय गुरुदेव मरुधर केसरीजी महाराज साहब से कई वर्षों से प्रार्थना कर रहे थे कि कर्मग्रन्थ जैसे विशाल और गम्भीर ग्रन्थ या नये ढंग से विवेचन एवं प्रकाशन होना चाहिए। आप जैसे समर्थ शास्त्रज्ञ विद्वान एवं महास्थविर सन्त ही इस अत्यन्त श्रमसाध्य एव व्यय साध्य कार्य को सम्पन्न करा सकते हैं | गुरुदेवधी का भी इस ओर आवार्षण हुआ और इस कार्य को आगे बढ़ाने का संकल्प किया। विवेचन लिखना प्रारम किया। विवेचन को भाषा-शैली आदि हदियों से सुन्दर एवं सूचिकर बनाने तथा फुटनोट, आगमों के उद्धरण संकलन. भूमिका, लेखन आदि कार्यो का दायित्व प्रसिद्ध विद्वान श्रीयुत श्रीचन्दजी सुराना को