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जैन समाजका महान चिराग
बुझ ग या श्री सरेमल भानमलजी महेता
जन शासनके महानस्थंभ जैन रत्न व्याख्यान
___ का शासन पाकर अपना जीवन उज्जवल बनाये, वाचस्पति, पूज्यपाद, शांतमूर्ति, सुप्रसिद्ध वक्ता, .
ये उन्होने का प्रथम हेतु था वैराग्य रसका कविकुलकिरिट, संघस्थवीर शांत-तपोमूर्ति, परम
। मथन करके पीया था. आपश्रीजी की पुण्य छायामें पूज्य प्रातःस्मरणीय, स्वर्ग के मार्गदर्शक, शास्त्र
दीक्षा, उपधान, उद्यापन मंदिर मूर्ति प्रतिष्ठा, संशोधक, बालब्रह्मचारी, शास्त्रपारंगत, संतमहात्मा
पदप्रदान इत्यादि मंगल महोत्सव प्रचुर मात्रामें वीर शिरोमणी परम-पूज्य आचार्यदेव १००८
हुये है. श्रीमद श्री विजय लब्धिसूरीश्वरजी महाराज नास्तिक को भास्तिक बनाना, मक्खीचुस को साहेवका जन्म गुजरात देशमें बालशासन नामक उदार बनाना. दुष्टको सदाचारी बनाना, धर्मकी गांवमें विक्रम संवत १९४० पोष महिने के शुक्ल जागरूकता कराना, अनियमीतो को नियमीत पक्षमें द्वादशीके रातको मोतीबहेनके कुक्षी में बनाना इन सर्वोत्तम कार्याको जीवनका सच्चा हुआ. आचार्यश्रीजीके पिताका शुभ नाम पितांबर आनंद मानते थे आपश्री ! आपश्रीने जिन शुभ शेठ था. व संसारिक नाम लालचंद था. शेशव- कार्य, अथवा धर्मकार्याका बिडा उठाते वक्त अगर कालसेही श्रीजी के हृदयमें धर्मसंस्कारका बिजो- विपरित संयोगमें पहाड भी आगये तो भी आप. रापण किया था. दिनप्रतिदिन धर्मके प्रति दृढ श्रीने साहस-पूर्वक सामना कर पुरा किया मौका श्रद्धाकी जागरूकता होती गई. तदपश्चात गुरुदेव आने पर शेरसे भी टक्कर ली. जिस समय आचार्य म. १००८ श्री विजय कमलसूरीश्वरजीके पंजाबमें शास्त्रो हुआ. उस समय लाठी व ईटोका सम्पर्क में आनेसे तथा व्याख्यानादि सांभलनेसे वर्षाव हुआ, फिर भी आपश्रीजीने धैर्यता व संसार के सर्व सुखचैन्य, मोह-ताल असार प्राती साहसपूर्वक कार्या संपूर्ण किया. यह तक कि होने लगे. व आत्मविश्वास हो गया कि संसार मुलतान शहर में आपश्रीके उपदेशसे मांसाहार व त्याग ही मोक्षकी सीडी है तबसे आपश्रीके हृदय कतलखाने बंद करने पडे. उस समय कसाईयोने मादरमें संयम लेनेका दृढ संकल्प किया. और अग्नी छरीसे आपश्री के पावन देह पर आघात विक्रम संवत १९५९ के कार्तिक वद ६ को पू. करनेको उद्यत हो गये, लेकिन ऐसी कठिन आचार्यदेव श्रीमविजय कमलसूरीश्वरजीके हस्ते समस्यामें भी कर्तव्यका पालन न छोड़ा बोरसदमें आनंदपूर्वक दीक्षा ग्रहण की, चातुर्मास श्रीमदजी उपा. श्री जयंतविजयजीका दीक्षा समारोह कसौटी के साथ इडरमें किया, तद्पश्चात सं. १९८१ को का था. फिरभी आपश्रीका कार्य पूर्ण हुआ. गणि तथा पन्यास आचार्यपदका बोझ श्रीजीने आपश्रीके मधुर वाणीमें अजोड बल था. एकही आपश्री पर डालदिया, संयम लेने के बाद विनय व्याख्यानमें पत्थर भी पीघल जाता था आपश्री कृतज्ञता, ज्ञानप्रीति, सहनशीलता, उदारता इत्यादि विराट समुदायके नायक होते हुये भी आपका गुणोका समोवेश बढता ही गया. आत्मकल्याणकी मन बालककी भाँति था. आपश्री के संपादित प्रवृति भावनासे ओतप्रोत थी. प्रत्येक जीव सर्वज्ञ किये हुये “वादि चूडामणि तार्किक शिरोमणि