Book Title: Kalyan 1962 01 Ank 11
Author(s): Somchand D Shah
Publisher: Kalyan Prakashan Mandir

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Page 104
________________ ८१८ : श्रद्धांजलि के सुगन्धी पुष्प शास्त्रों का अध्ययन भी उनका इतना गहरा और कैसे कर सकते थे। नयचक्र भारतवर्ष के संस्कृत गम्भीर था कि सैकडों युक्तियों और शास्त्रीय भाषा, दर्शन, न्याय और तर्क परिपूर्ण प्रधान प्रमाणों द्वारा सामने के वादि का पराजय किये ग्रन्थों (Master Pieces) में से एक है। बिना रहेते नहीं थे। इसलिये उनके नाम से वादी लोग धबड़ाते थे और उनके विद्वत्ताकी मुझे भी आचार्य भगवंतका संस्कृत भाषामें मुक्त कंठसे तारिफ करते थे। एक प्रसंग पर प्रभावशाली प्रवचन सुननेका सौभाग्य प्राप्त हुआ है अर्थात् जिस वख्त - संस्कृत भाषा पर इनका इतना आधिपत्य था बम्बइ शहरमें "नय चक्र" ग्रन्थका उद्घाटन कि गद्यमें तो क्या परन्तु पद्यमें भी प्रवचन समारोह भारतके उपप्रमुख डा. राधाकृष्ण के . कर सकते थे। बात की बातमें श्लोक बनाना करकमलों से होनेवाला था और उनके साथ तो उनके हाथका सामान्य खेल था। इस भारतीय विद्याभुवन के प्रसिद्ध प्रोफेसर दीक्षिता. प्रकारका संस्कृत भाषा पर आधिपत्य होते हुए रमहोदय जो आजके युगमें संस्कृत भाषाके महान् जनकल्याणकी शुभ कामनामें वे सरलसे सरल साक्षर माने जाते हैं, जिन्होंने इस प्रसंग पर हिन्दी और हिन्दुस्थानी (उदु मिश्रित) में सैकडों बडी विद्वत्तापूर्ण संस्कृत भाषामें प्रवचन भी किया स्तवन लावणी और तोके रचने में कोई त्रुटि था । उक्त प्रसंग पर पूज्यवर आचार्य नहीं रखी। वे स्वयं जन्म से गुर्जर देशके भगवंतने भी इतनी सुंदर शैली से निवासी होते हुए भी उन्होंने स्तवनादिके रचना धारावाही संस्कृत भाषामें बहुत देर तक में विशेष प्रायः हिन्दी भाषाका उपयोग किया जो व्याख्यान दिया था, उस अद्भुत वक्तृत्व है, इससे प्राय: अनुमान होता है कि स्वराज्य शक्तिको देखकर स्वयं दीक्षितारमहोदय, डा० प्राप्तिके कई वर्षों पूर्व उनके अंतरात्मामें यह राधाकृण (भारत उपप्रमुख) श्री प्रकाश (बम्बई भास हो गया होगा कि वो समय निकटमें आने के राज्यपाल) आदि जितने भी सभामें नामाङ्कित वाला है, जबकि हिन्दी भाषा देश व्यापि बन पुरुष थे, वे सब के सब मंत्रमुग्ध होकर उनके जायगी । अर्थात् वे बड़े दूरदर्शी महात्मा थे, मुखारविन्दकी तरफ एक दृष्टि से देखते रह गये। जिन्होंने ऐसे सरल भाषामें सुन्दर भावभरे वह दृष्य तो ऐसा भास होता था कि अक और नूतन संगीतके शैलीके अनुसार ऐसे रोचक तरफ तो उनकी वयोवृद्ध अवस्थासे बना हुआ स्तवनादि बनाये कि सारे देशभर में क्या पुरुष शुद्ध और दुर्बल देह और सिर पर श्वेत चामर क्या स्त्रीये और क्या बालक बालिकायें चारो के बालोंकी भांति शिखा और सत्युग के वनवासी और तान लगाते हुए ही नजर आरह हैं। ऋषि महात्माओं जैसी चमकती हुई सफेद दाढी कहनेका तात्पर्य यह है कि एक प्रौढ विद्वानका और प्रबोध भावात्मक हाथ. के चेष्टाओंसे हृदय कितना आर्जव और मार्दव गुणयुक्त था शोभायमान मुखसे बहती वाणी गंगा मेरे मन में वरना सर्व साधारणोपयोगी लोकभाषामें अपने उती कल्पनाके तरंगे उत्पन्न कर रही थी कि कवित्व शक्तिका इतना उपयोग कौन करता ? सरयू नदीके किनारे पर आश्रममें वसिष्ठ ऋषि उनकी श्रेणी के संस्कृत भाषाके उत्कृष्ट विद्वान् के सामने रघुवीर राम लक्ष्मण अपने राज्यालोकभाषामें इतना परिश्रम उतने कम नजर धिकारियोंके साथ बैठ कर उनकी मधुरध्वनि मारहे है। इनका संस्कृत भाषा का सुन रहे हो वैसे ही भारतके उपप्रमुख और कितना गहरा अध्ययन होगा, वरना नयचक्र राज्यपालादि दिखते थे। आज भी वह दृश्य नैसे कठिन ग्रन्थका संशोधन एवं संपादन वे स्मतिमें आता है तब बड़ा आश्चर्य होता है कि

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