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श्रद्धांजलि के सुगन्धीपुष्प
श्री रिषभदासजी जैन, मद्रास पू. पाद सूरीदेवश्रीकी विश्व पर जो उपक रकी परंपरा है। वह सौम्य और
मधुर भाषामें यहां पर लेखक दर्शाते है।
जन शासन रूपी साइकिलके दो पहिये
.. क्षेत्रमें जिस प्रकारके योग्य प्रभावक महापुरुषकी
आवश्यकता होती है वैसे वैसे महापुरुष आज तक (चक्र) है, एक आराधनाका दूसरा प्रभावनाका। इस स्थान पर मैं शासनको रथकी उपमा न
उत्पन्न होते आते है। शास्त्रोमें आठ प्रकारके
प्रभावक पुरुषोंका वर्णन है कभी किस प्रकारके देते हुए साइकिलकी उपमा विशेष उपयुक्त मानता
प्रभावक पुरुषकी और कभी किस प्रकारके प्रभाहुँ, क्योंकि साइकिलका आगेका पहिया पीछे के पहिये के प्रतापसे चलता है, उसी तरहसे
वक पुरुषकी आवश्यकता रहती है, उसी प्रकार
उसकी पृर्तिभी होती आई है। जैन शासन की जयवंता वर्तती है वह प्रभावना के प्रताप से है। इसलिये प्रभावक
वर्तमान द्रव्य क्षेत्र काल और भावकी परि. पुरषों को श्री तीर्थकर प्रभु के प्रधान प्रतिनिधि ।
_ स्थिति में भिन्न भिन्न प्रकारके प्रभावक पुरुषोंका माने हैं और वे तीर्थकर भगवंतो के तीर्थ के होना अनिवार्य था, उसी प्रकारके इस युगमें आधार स्तम्भ समझे जाते हैं। इतिहाससे पता . भी कई एक प्रभावक पुरुष प्राप्त हुए हैं। चलता है कि प्रभ श्री महावीर समयके जैन उनमें से पूज्यवर आचार्य भगवंत श्री विजय धर्मानुयायी प्रायः आज बहुत ही कम नजर.
लब्धिसूरीश्वरजी भी एक हैं जो इस युगके आते हैं, आज जैन धर्मानुयायी ओसवाल,
महान् प्रवचनकार और कविकुल किरीट थे। पोरवाल, श्रीमाल, अग्रवाल, पल्लीवालादि जितने
___ उनकी कवित्व शक्ति और प्रवचन शक्तिके बारेमें भी भारतवर्ष में नजर आते हैं, वे सब के सब जितनाभी कहा जावे उतना थोड़ा है। उनके श्री तीर्थ कर महावीर प्रभुके बाद के सदियों में जीवनसे पता चलता है कि उनके प्रवचन प्रभावक घमाचार्योंके उपदेश एवं प्रतिबोधसे जैन शक्तिसे हजारों कर हृदय करुणा हृदयमें परिधर्मानुयायी बने है। श्री महावीर प्रभुके समय वतन हुए
__ वर्तन हुए है और पंजावादि देशोमे विहार में अंग, बंग, कलिंग, मगध, विदेह, काशी करके अनेक मांसाहारीयांको मांस, मदिराका कौशलादि देशांमें करोडों की संख्यामें जैन अवश्य
त्याग करा कर अहिंसा उपासक बनाये हैं। थे, परन्तु उनकी संततिका पूरा पता लगाना
उनके व्याख्यानमें जैन जैनेतरोंकी बड़ी संख्या कठिन समस्या है।
उपस्थित होती थी और उनके अमृतवाणीका
पान कर अपने जीवन शुद्धिमे प्रगति साधते थे। कहनेका आशय यह है कि आज भी यहाँ तक सुना है कि मुलतान जैसे शहरमें तो जैन धर्म अक्षीणधारा प्रवाही गंगाके स्रोतके उनके व्याख्यानका ऐसा प्रभाव पड़ा था कि समान भूमंडल पर जो जयवंता नजर आ रहा मांसका भाव (Rate) बजारमें इतना नीचे है, वह प्रायः प्रभावक आचार्य भगवंतोके परिश्रम भागया था कि मांसके व्यापारियोंकी ऐसी छाती
का परिणाम है। जैन समाजका बडा ही सद्भाग्य घबड़ा गई थी कि अब जीवननिर्वाहका दूसरा १३ है कि जिस जिस कालमें और जिस जिस धंदा ही शोघना चाहिए। तुलनात्मक दर्शन