________________
भवचक्र से जो मव्यजन को,
सदा पार उतारती । जगजालमय एकान्त को,
जो रही सदा नकारती ।। निजतत्त्व को पाकर मविक,
जिसकी उतारें आरती । नयचक्रमय उपलब्ध नित,
यह नित्यबोधक मारती ॥ ३ ॥
नयचक्र के संचार में,
जो चतुर हैं, प्रतिबद्ध हैं। भवचक्र के संहार में,
जो प्रतिसमय सत्रद्ध हैं । निज आत्मा की साधना में,
निरत तन मन नगन हैं। भव्यजन के शरण जिनके,
चरण उनको नमन है ॥ ४ ॥ कर कर नमन निजमाव को,
जिन जिनगुरु जिनवचन को। निजभाव निर्मलकरन को,
जिनवरकथित नयचक्र को । निजबुद्धिबल अनुसार,
प्रस्तुत कर रहा हूँ विज्ञजन ! ध्यान रखना चाहिए,
यदि हो कहीं कुछ स्खलन ॥५॥