Book Title: Jinavarasya Nayachakram
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 119
________________ व्यवहारनय : भेद-प्रभेद ] [ १११ (ग) भिन्नवस्तुनों के संश्लेषसहित सम्बन्ध को विषय करनेवाले अनुपचरित-प्रसद्भूतव्यवहारनय के स्वरूप व विषयवस्तु को स्पष्ट करनेवाले कतिपय शास्त्रीय उद्धरण इसप्रकार है : (१) "संश्लेषसहित वस्तुसम्बन्धविषयोऽनुपचरिता सद्भूतव्यवहारो यथा - जीवस्य शरीरमिति । " सश्लेषसहित वस्तुओ के सम्बन्ध को विषय करनेवाला प्रनुचरितप्रसद्भूतव्यवहारनय है । जैसे - जीव का शरीर है ।" द्रव्यकर्मणां (२) "प्रासनगतानुपचरितासद् भूत व्यवहारनयाद् कर्त्ता तत्फलरूपाणां सुखदुःखानां भोक्ता च **** 1 'अनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण नोकर्मणां कर्त्ता । आत्मा निकटवर्ती अनुपचरित-प्रसद्भूतव्यवहारनय से द्रव्यकर्मो का कर्त्ता और उसके फलस्वरूप सुख-दुःख का भोक्ता है" ********* | ''''अनुपचरित प्रमद्भूतव्यवहारनय मे नोकर्म अर्थात् शरीर का भी कर्त्ता है ।' (३) "अनुपचरितासद्भूतव्यवहारान्मूर्तो । 3 अनुपचरित-प्रसद्भूतव्यवहारनय से यह जीव मूर्त्त है ।" (४) "अनुपचरितासद्द्भूतव्यवहारनयेन देहादभिन्नम् । ' अनुपचरित-प्रसद्भूतव्यवहारनय से यह आत्मा देह से प्रभिन्न है ।' (५) "अनुपचरितासद्द्भूतव्यवहारेण द्रव्यप्राश्च यथासंभवं जीवति जीविष्यति जीवितपूर्वश्चेति जीवो । " अनुपचरित-प्रसद्भूतव्यवहारनय से जीव यथासंभव द्रव्यप्रारणो के द्वारा जीता है, जीवेगा और पहले जीता था ।" (६) "जीवस्योदयिकादि भावचतुष्टयमनुपचरितासद्द्भूतव्यवहारेग द्रव्यकर्मकृतमिति । " १ प्रालापपद्धति, पृष्ठ २२८ * नियमसार, गाथा १८ की तात्पर्यवृत्ति टीका 3 बृहद्रव्यसंग्रह, गाथा ७ की संस्कृत टीका ४ परमात्मप्रकाश, अ० १, गाथा १४ की सस्कृत टीका ५ पंचास्तिकाय, गाथा २७ की तात्पर्यवृत्ति टीका ● पंचास्तिकाय, गाथा ५८ की तात्पर्यवृत्ति टीका

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