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[ जिनवरस्य नयचक्रम् निरंकुश होने लगता है, तो वे ही कर्णधार निर्दयता मे उसका निषेध करने लगते हैं। वे पुकार-पुकार कर कहते है कि भाई ! आप गुजराती या महाराष्ट्री नही; आप तो भारतीय है भारतीय । यह प्रान्त का भेद व्यवस्था के लिए है; अव्यवस्था के लिए नहीं, लड़ने के लिए नहीं। इस भेद को अपेक्षा तो तबतक ही है, जबतक यह व्यवस्था में सहयोगी हो तथा सीमा के बाहर होने से पूर्व ही इसका निषेध भी आवश्यक है।
इसीप्रकार द्रव्य में प्रदेशभेद या गुणभेद, मुक्तिपथ के कर्णधार तीर्थकरों, प्राचार्यों के द्वारा ही द्रव्य की आन्तरिक संरचना समझाने के लिए किए जाते हैं। और जब वह भेद-विवरण अपना काम कर चुकता है, तब वे ही तीर्थकर या प्राचार्य उसका निर्दयता से निषेध करने लगते हैं। उनके इन निषेध वचनों या विकल्पों का नाम ही निश्चयनय है। सब विकल्पों का निषेध करनेवाला सर्वाधिक वजनदार यह नयाधिराज निश्चयनय ही है, जो समस्त भेद-विकल्पों का निषेध कर, स्वयं निषिद्ध हो जाता है, निरस्त हो जाता है ।
निश्चयनय के भेद-प्रभेदों और उनके निषेध की प्रक्रिया तथा नयाधिराज की चर्चा निश्चयनय के प्रकरण में पहले की ही जा चुकी है, अतः वहाँ से जानना चाहिए।
। उक्त सम्पूर्ण प्रक्रिया में प्रत्येक नयवचन का वजन जानना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तथ्य है । इसे जाने बिना नयकथनों का मर्म समझ पाना संभव नहीं है।