Book Title: Jinavarasya Nayachakram
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 156
________________ १४८ ] [ जिनवरस्य नयचक्रम् इस नय की प्रवृत्ति में कारण यह है कि जिस पदार्थ की जो विभावभावरूप शक्ति है; वह जब उपयोगदशा से युक्त होती है, तब भी वह उससे अभिन्न होती है। जितने भी स्व और पर के निमित्त से होनेवाले आगन्तुक भाव हैं, वे क्षणिक होने से और आत्मा के धर्म नहीं होने से प्रादेय नहीं हैं- ऐसी बुद्धि होना ही इस नय का फल है।" उपचरित-असद्भूतव्यवहारनय का स्वरूप और विषयवस्तु पंचाध्यायी में इसप्रकार दी गई है : "उपचरितोऽसद्भूतो व्यवहाराख्यो नयः स भवति यथा। कोषायाः प्रौदयिकाश्चितश्चेद्बुद्धिजा विवक्ष्याः स्युः ॥५४६॥ बीजं विभावमावाः स्वपरोभयहेतवस्तथा नियमात् । सत्यपि शक्तिविशेषे न परनिमित्ताद विना भवन्ति यतः ॥५५०॥ तत्फलमविनाभावात्साध्यं तदबुद्धिपूर्वका भावाः। तत्सत्तामात्रं प्रति साधनमिह बुद्धिपूर्वका भावाः ॥५५१॥' जब जीव के क्रोधादिक औदयिक भाव बुद्धिपूर्वक विवक्षित होते हैं, तब वह उपचरित-असद्भूतव्यवहारनय कहलाता है। इस नय की प्रवृत्ति में कारण यह है कि जितने भी विभावभाव होते हैं, वे नियम से स्व और पर दोनों के निमित्त से होते हैं; क्योंकि द्रव्य में विभावरूप से परिणमन करने की शक्तिविशेष के रहते हुए भी वे परनिमित्त के बिना नहीं होते। अविनाभाव संबंध होने से प्रबद्धिपूर्वक होनेवाले भाव साध्य हैं और उनका अस्तित्व सिद्ध करने के लिए बुद्धिपूर्वक होनेवाले भाव साधन हैं। इसप्रकार इस बात का बतलाना ही इस नय का फल है।" पंडित देवकीनन्दनजी सिद्धान्तशास्त्री के विचार उक्त सन्दर्भ में भी दृष्टव्य है, जो कि इसप्रकार है : "यहाँ अबुद्धिपूर्वक होनेवाले क्रोधादिभावों को जीव का कहना अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय माना गया है। जबकि अनगारधर्मामत में अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय का 'शरीर मेरा है'- यह उदाहरण लिया है। इन दोनों विवेचनों में मौलिक अन्तर है। 'पंचाध्यायी, म० १, श्लोक ५४६-५५१

Loading...

Page Navigation
1 ... 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191