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पचाध्यायी के अनुसार व्यवहारनय के भेद-प्रभेद ]
[ १५१ विषय में ले लेते हैं । असद्भूतव्यवहारनय के दो भेदों में विभाजित करने के लिए वे रागादि विकारीभावों को बुद्धिपूर्वक और अबुद्धिपूर्वक - इन दो भेदों में विभाजित कर देते हैं।
इसप्रकार उनके अनुसार बुद्धिपूर्वक राग उपचरित-असद्भूतव्यवहारनय का तथा अबुद्धिपूर्वक राग अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय का विषय बनता है।
शुद्धता और अशुद्धता का आधार बनाकर सद्भूतव्यवहारनय के जो दो भेद अन्यत्र किए गए है, उनमे अशुद्धता के आधार पर रागादि विकार अशुद्धसद्भूतव्यवहारनय के विषय बनते है, किन्तु जब पचाध्यायीकार गगादि को असद्भूतव्यवहारनय के भेदो मे ले लेते है तो अशुद्धसद्भूतव्यवहारनय के विषय की समस्या उपस्थित हो जाती है उसका समाधान वे इमप्रकार करते है कि अर्थविकल्पात्मकज्ञान अर्थात् 'जो रागादि को जाने, वह ज्ञान' - यह तो अशुद्धसद्भूतव्यवहारनय का विषय बनता है और सामान्यज्ञान अर्थात् 'ज्ञान वह आत्मा' - ऐसा भेद शुद्धमद्भूतव्यवहारनय का विषय बनता है।
- अब एक समस्या और भी शेष रह जाती है। वह यह कि अन्यत्र जिन संश्लेषसहित और संश्लेषरहित देह व मकानादि को असद्भूतव्यवहारनय का विपय बताया गया है, उन्हे अमद्भूतव्यवहारनय का विषय नही मानने पर पंचाध्यायीकार उन्हे किस नय का विषय मानते है ?
___ इसके उत्तर मे पंचाध्यायीकार उन्हे नय मानने मे ही इन्कार कर देते है । वे उन्हे नयाभास कहते है । मात्र इतना ही नही, उन्हें नय माननेवालों को मिथ्यादृष्टि कहने मे भी वे नहीं चूकते है। उनका कथन मूलतः इसप्रकार है :
"ननु चासद्भूताविर्भवति स यत्रेत्यतद्गुणारोपः। दृष्टान्तादपि च यथा जीवो वर्णादिमानिहास्त्विति चेत् ॥५५२॥ तन्न यतो न नयास्ते किन्तु नयाभाससंज्ञकाः सन्ति ।। स्वयमप्यद्गुणत्वादव्यवहाराविशेषतो न्यायात् ॥५५३॥ तदभिज्ञानं चतोऽतद्गुणलक्षणा नयाः प्रोक्ताः। तन्मिथ्यावादत्वाद् ध्वस्तास्तवादिनोऽपि मिथ्याख्याः ॥५५४॥ तद्वादोऽथ यथा स्याज्जीवो वर्णादिमानिहास्तीति । इत्युक्त न गुणः स्यात् प्रत्युत दोषस्तदेकबुद्धित्वात् ॥५५॥