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व्यवहारनय : कुछ प्रश्नोत्तर ]
[ १२५ अन्य-अन्य होना अन्यत्व है और पृथक्-पृथक् होना पृथक्त्व है। अन्यत्व का विलोम अनन्यत्व है और पृथक्त्व का विलोम अपृथक्त्व है।।
दो द्रव्य परस्पर पृथक्-पृथक होते है, पर एक द्रव्य के दो गुण या गुण-गुरणी आदि अन्य-अन्य होते है, पृथक्-पृथक् नहीं; क्योकि एकद्रव्यरूप होने से वे है तो अपृथक् ही।।
दो द्रव्य कभी भी अपृथक् नही हो सकते । सयोगादि देवकर उनके बीच जो अपृथकता (एकता) बताई जाती है, वह आरोपित होती है। अतः उसे विषय बनानेवाले नय भी असद्भूत कहलाते है।
___ इसप्रकार हम देखते है कि प्रत्येक द्रव्य की पर मे पथकता (भिन्नता) और अपने से अपृथक्ता (अभिन्नता, एकता) ही वास्तविक है, वस्तुस्वरूप के अधिक निकट है।
यही कारण है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द समयसार के प्रारम्भ में ही एकत्व-विभक्त आत्मा की दुर्लभता बताते हुए अपने सम्पूर्ण वैभव से उसे ही दिखाने की प्रतिज्ञा करते है।
"तं एयत्तविहत्तं दाएहं अप्पणो सविहवेण ।' मै उस एकत्व-विभक्त आत्मा को अपने निजवैभव से दिखाता है।"
पर से विभक्त और निज मे एकत्व को प्राप्त आत्मा ही परमपदार्थ है, परमार्थ है। आत्मा का पर से एकत्व अमद्भूतव्यवहारनय का विषय है, अपने मे ही अन्यत्व सद्भूतव्यवहारनय की मीमा मे पाता है। अत निज से एकत्व और पर से विभक्त आत्मा निश्चयनय का विपय है।
सद्भूत और असद्भूत दोनो ही व्यवहार हेय हे, क्योकि मद्भुतव्यवहारनय अतद्भाव के आधार पर द्रव्य की एकता को खण्डित करता प्रतीत होता है और असद्भूतव्यवहारनय उपचार के महारे विभक्तता को भजित करता दिखाई देता है।
। यही कारण है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द समयमार की पाचवी गाथा मे एकत्व-विभक्त अात्मा का स्वरूप बनाने की प्रतिज्ञा करने के तत्काल बाद ही छठवी और सातवी गाथा मे चारो ही प्रकार के व्यवहार का निषेध करते दिखाई देते है।
(२) प्रश्न :- "पर से विभक्त और निज मे एकत्व को प्राप्त आत्मा ही परमपदार्थ है, परमार्थ है। वही निश्चयनय का विपय भी है। ' समयसार, गाथा ५