________________
व्यवहारनय : कुछ प्रश्नोत्तर ]
[ १२७ निश्चयनय के विषयभूत जिस अभेद अखण्ड प्रात्मा मे आप रमना चाहते है; जबतक उमका आन्तरिक वैभव आपकी समझ मे नही आएगा, तबतक आप उसके प्रति महिमावत भी कैसे होगे, उसके प्रति सर्वस्व समर्पण के लिए कमर कस के तैयार भी कैसे होगे?
एक आत्मा""प्रात्मा.."कहते रहने से तो किसी की समझ मे कुछ श्रा नही पाता। अत. उसकी प्रभुता का परिचय विस्तार से दिया जाना आवश्यक ही नही, अनिवार्य भी है।
"प्रात्मा अनन्त-अनन्त सामर्थ्य का धनी है, अनन्तानन्त गणो का गोदाम है, अनन्तसामर्थ्यवाली अनन्त-अनन्त शक्तियो का मग्रहालय है, शान्ति का सागर है, प्रानन्द का कन्द है, ज्ञान का घनपिण्ड है, प्रभु है, परमात्मा है, एकसमय मे लोकालोक को देखे-जाने -ऐमी सामर्थ्य का धनी है अर्थात् सर्वदर्शी ओर सर्वज्ञस्वभावी है।"
__ इसप्रकार शुद्धमद्भूतव्यवहारनय आत्मा मे अनुपरितरूप से विद्यमान शक्तियो और पूर्णपावन व्यक्तियो का ही तो परिचय कराता है। आत्मा मे ज्ञान-दर्शनादि गुग्ग और केवलज्ञानादि पर्याय कोई उपचरित नही है; वास्तविक है, शुद्ध है। वम वात इतनी सी ही तो है कि कथन मे जिसप्रकार का भेद प्रदर्शित होता है, वे उमप्रकार भिन्न-भिन्न नही है, अपितु अभेद-अखण्डरूप से विद्यमान है। उनमे परम्पर भेद का मर्वथा अभाव हो- ऐसी भी बात नही है । अतद्भावरूप भेद तो उनमे भी है ही; परन्तु उनमे वैसा भेद नहीं है, जैसा कि दो द्रव्यो के बीच पाया जाता है।
हॉ, यह बात अवश्य है कि इन भेदो मे ही उलझे रहने से अभेद अखण्ड प्रात्मा का अनुभव नही होता, अतः इसका निपेध भी आवश्यक है। इसलिए प्रयोजन मिद्ध हो जाने पर उसका निषेध भी निर्दयता मे कर दिया जाता है।
लोक में भी तो हम जबतक किमी वस्तु की वास्तविक विशेषतायो को नही जान लेते, तबतक उसके प्रति आकर्षित नही होते है। हमारी रुचि का ढलान आत्मा की अोर हो- इसके लिए आवश्यक है कि हम उसकी वास्तविक विशेषताओं से गहराई से परिचित हो। परिचय की प्राप्ति के लिए प्रतिपादन आवश्यक है और प्रतिपादन करना व्यवहारनय का कार्य है।
इसीप्रकार अशुद्धसद्भूतव्यवहारनय आत्मा की अपूर्ण और विकृत पर्यायों का ज्ञान कराता है। प्रात्मा की वर्तमान अवस्था में रागादि