Book Title: Jinavarasya Nayachakram
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 148
________________ १४० ] [ जिनवरस्य नयचक्रम् पाहरणहेमरयणं बच्छादीया ममेदि जप्पंतो। उवयरियप्रसन्भूमो विजाइदम्वेसु रसायन्वो ॥२४॥ 'पाभरण, सोना, रत्न और वस्त्रादि मेरे हैं' - यह कथन विजातिउपचरित-असद्भूतव्यवहारनय है । देसंव रज्जदुग्गं मिस्सं अण्णं च भणइ मम दव्वं । उहयत्थे उवयरियो होइ असम्भूदयवहारो॥२४६॥ देश के समान राज्य व दुर्ग आदि मिश्र अन्यद्रव्यों को अपना कहता है, वह उभय अर्थात स्वजाति-विजाति-उपचरित-असद्भूतव्यवहारनय है।" उक्त सम्पूर्ण कथन का गहराई से मंथन करने पर यह बात एकदम स्पष्ट हो जाती है कि जिन भिन्नपदार्थों में निकट का अर्थात सीधा-संबंध होता है, वे तो अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय के अन्तर्गत आते हैं तथा जिनका संबंध दूर का होता है अर्थात जो संबंधी के भी संबंधी होने से परस्पर संबंधित होते हैं; उनको उपचरित-असद्भूतव्यवहारनय अपना विषय बनाता है। जैसे - शरीर तो आत्मा से सीधा संबंधित है, पर माता-पिता, स्त्री-पुत्रादि, मकान आदि शरीर के माध्यम से संबंधित हैं। अतः आत्मा और शरीर का संबंध अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय का विषय बनता है, तथा आत्मा और स्त्री-पुत्रादि व मकानादि का संबंध उपचरित-असद्भूतव्यवहारनय का विषय बनता है। इसीप्रकार स्वजातीय और विजातीय संबंधों को भी समझ लेना चाहिए । जब आत्मा और शरीर का संबंध बताया जाता है, तब आत्मा चेतनजाति का और शरीर अचेतनजाति का होने से दोनों का संबंध विजातीय कहा जाता है। जब पिता-पुत्र का सम्बन्ध बताया जाता है, तब पिता व पुत्र दोनों के चेतन होने से वह संबंध सजातीय कहा जाता है। इसीप्रकार सर्वत्र घटित कर लेना चाहिए। (८) प्रश्न :- 'ज्ञाता-ज्ञेय संबंध को संश्लेषसंबंध अर्थात् निकट का संबंध मानकर अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय में रखा गया हैजबकि उनमें अत्यधिक दूरी पाई जा सकती है, क्योंकि सर्वज्ञ भगवान का ज्ञेय तो अलोकाकाश भी होता है । तथा मकान व पुत्रादि को दूर का संबंधी मानकर उपचरित-असद्भूतव्यवहारनय में डाला गया है, जबकि वे निकट के संबंधी प्रतीत होते हैं। लोक में भी जैसा एकत्व या ममत्व पुत्रादि व मकानादि में देखा जाता है, वैसा ज्ञेयों में नहीं।'

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