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[ जिनवरस्य नयचक्रम् यहाँ प्रश्न है कि व्यवहारनय पर को उपदेश में ही कार्यकारी है या अपना भी प्रयोजन साधता है ?
समाधान :- पाप भी जब तक निश्चयनय से प्ररूपित वस्तु को न पहिचाने तक तक व्यवहारमार्ग से वस्तु का निश्चय करे; इसलिए निचली दशा में अपने को भी व्यवहारनय कार्यकारी है; परन्तु व्यवहार को उपचारमात्र मानकर उसके द्वारा वस्तु को ठीक प्रकार समझे तब तो कार्यकारी हो; परन्तु यदि निश्चयवत् व्यवहार को भी सत्यभूत मानकर 'वस्तु इसप्रकार ही है' - ऐसा श्रद्धान करे तो उल्टा प्रकार्यकारी
हो जाये।"
निश्चय और व्यवहारनय के कथनों में जो परस्पर विरोध दिखाई देता है, वह विषयगत है। अनेकान्तात्मक वस्तु में जो परस्पर विरोधी धर्मयुगल पाये जाते हैं, उनमें से एक धर्म निश्चय का पौर दूसरा धर्म व्यवहार का विषय बनता है।
जिस दृष्टि से निश्चय-व्यवहार एक दूसरे का विरोध करते नजर आते हैं, उसी दष्टि से वे एक-दूसरे के पूरक भी हैं। कारण कि वस्तु जिन विरोधी धर्मों को स्वयं धारण किये हुए है, उनमें से एक का कथन निश्चय
और दूसरे का कथन व्यवहार करता है। यदि दोनों नय एक पक्ष को ही विषय करने लगें तो दूसरा पक्ष उपेक्षित हो जावेगा। अतः वस्तु के सम्पूर्ण प्रकाशन एवं प्रतिपादन के लिए दोनों नय प्रावश्यक हैं, अन्यथा वस्तु का समग्र स्वरूप स्पष्ट नहीं हो पावेगा।
जहां एक ओर निश्चय और व्यवहार में प्रतिपाद्य-प्रतिपादक सम्बन्ध है। वहीं दूसरी ओर व्यवहार और निश्चय में निषेध्य-निषेधक सम्बन्ध भी है।
निश्चय प्रतिपाद्य है और व्यवहार उसका प्रतिपादक है । इसीप्रकार व्यवहार निषेध्य है और निश्चय उसका निषेधक है।
समयसार में कहा है :"एवं ववहारगमो पडिसिद्धो जारण रिगच्छयगएण। रिणच्छयरण्यासिदा पुरण मुरिगणो पावंति रिणव्वाणं ॥
इसप्रकार निश्चयनय द्वारा व्यवहारनय निषिद्ध हो गया जानो। निश्चयनय का प्राश्रय लेने वाले मुनिराज निर्वाण को प्राप्त होते हैं।" ' मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ २५१-२५३
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