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निश्चय और व्यवहार ]
[ ५९ कविवर पं० बनारसीदासजी ने इस कलश का हिन्दी पद्यानुवाद इसप्रकार किया है :
"यह निचोर या ग्रंथ को, यह परम रस पोख।
तजे सुद्धनय बंध है, गहै सुखनय मोख ॥"
व्यवहारनय का निषेध तो निश्चयनय करता ही है। साथ में स्वयं के पक्ष का भी निषेध कर आत्मा को पक्षातीत, विकल्पातीत, नयातीत कर देता है।
आचार्य देवसेन अपने 'नयचक्र' में निश्चयनय को पूज्यतम सिद्ध करते हुए लिखते है :
"निश्चयनयस्त्वेकत्वे सम्पनीय ज्ञानचैतन्ये संस्थाप्य परमानंद समुत्पाद्य वीतरागं कृत्वा स्वयं निवर्तमानो नयपक्षातिक्रांतं करोति तमिति पूज्यतमः।
निश्चयनय एकत्व को प्राप्त कराके ज्ञानरूपी चैतन्य में स्थापित करता है । परमानन्द को उत्पन्न कर वीतराग बनाता है। इतना काम करके वह स्वतः निवृत्त हो जाता है। इसप्रकार वह जोव को नयपक्ष से अतीत कर देता है । इसकारण वह पूज्यतम है।"
और भी देखिये :
"यथा सम्यग्व्यवहारेण मिथ्याव्यवहारो निवर्तते तथा निश्चयेन व्यवहारविकल्पोऽपि निवर्तते । यथा निश्चयनयेन व्यवहारविकल्पोऽपि निवर्तते तथा स्वपर्यवसितमावेनकत्वविकल्पोऽपि निवर्तते । एवं हि जीवस्य योऽसौ स्वपर्यवसितस्वभाव स एव नय पक्षातीतः।।
जिसप्रकार सम्यकव्यवहार से मिथ्याव्यवहार की निवृत्ति होती है; उसीप्रकार निश्चयनय से व्यवहार के विकल्पों की भी निवृत्ति हो जाती है । जिसप्रकार निश्चयनय से व्यवहार के विकल्पों की निवृत्ति होती है। उसीप्रकार स्वपर्यवसित' भाव से एकत्व का विकल्प भी निवृत्त हो जाता है। इसप्रकार जीव का स्वपर्यवसितस्वभाव ही नयपक्षातीत है।"
इसप्रकार हम देखते हैं कि जबतक नयविकल्प चलता रहता है तबतक प्रात्मा परोक्ष ही रहता है, वह प्रत्यक्षानुभूति का विषय नहीं बन 'श्रुतभवनदीपक नयचक्र, पृष्ठ ३२ २ वही, पृष्ठ ६९-७०
अनुभवगम्य ४ "निश्चयनय से मात्मा एक है, शुद्ध है' - ऐसा निश्चयनय संबंधी विकल्प