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[ जिनवरस्य नयचक्र आप शेर और हाथी की बात करते हैं ? सो भाई शेर और हाथ तो सात तत्त्वों, छह द्रव्यों, नव पदार्थों, पाँच भावों, चार प्रभावों, द्रव्य गण-पर्याय आदि के भी नामादिक तक नहीं जानते थे; पर प्रापने क्य सीखे ? इनके नामादिक बिना जाने जैसे उन्होंने प्रात्मानुभव किया था वैसे आप भी कर लेते। जैसे आपने सप्ततत्त्वादिक का ज्ञान किया, वैर प्रमारण नयादिक का भी करना चाहिए। उनके समान ही ये भी उपयोगी हैं
शेर और हाथी की पर्याय में उन्हें सप्ततत्त्वादिक के नामादिक क ज्ञान नहीं होने पर भी उनका भाव-भासन था; उसीप्रकार उन्हें नयादिव के भी नामादिक का ज्ञान न होने पर भी उनके विषय का भाव-भासन था, अन्यथा आत्मानुभूति संभव नहीं थी।
तत्त्वार्थों का भाव-भासन हो- इस प्रयोजन से जिसप्रकार प्रार उनके विस्तार में, उनकी गहराई में जाते हैं; उसीप्रकार नयों और उनके विषयभूत अर्थ का सही भाव-भासन हो- इसके लिए यदि समय हो त बुद्धि के अनुसार इनकी भी गहराई में, इनके भी विस्तार में जाना अनुचित नहीं है।
__ यदि आप शिवभूति मुनिराज के समान चरम लक्ष्य को पा सकते हैं, तो अवश्य पालें। पर पा नहीं पा रहे हैं, इसलिए तो यह सब समझाया जा रहा है। विस्तार में उलझाने के लिए विस्तार से नहीं समझाया जा रहा है, अपितु सुलझाने के लिए ही यह सब प्रयत्न है। और यह यत्न मात्र हमारा नहीं, जिनवाणी में भी किया गया है। वस्तुस्वभाव के प्रकाशन के लिए ही नयचक्र का प्रयोग किया गया है, उलझाने के लिए नहीं। इसी बात को लक्ष्य में रखकर माइल्लधवल ने ग्रंथ का नाम ही 'द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र' रखा है।
भाई, राजमार्ग तो यही है कि हम निश्चय-व्यवहारनय का स्वरूप समझकर व्यवहारनय और उसके विषय छोड़कर तथा निश्चयनय के भी विकल्प को तोड़कर निश्चयनय की विषयभूत वस्तु का प्राश्रय लेकर नयपक्षातीत, विकल्पातीत आत्मानुभूति को प्राप्त करे । इस प्रयोजन से ही यह सब कथन किया गया है।
इसप्रकार यहाँ निश्चय और व्यवहार का स्वरूप, उनमें परस्पर सम्बन्ध, हेयोपादेय व्यवस्था, उनकी भूतार्थता, अभूतार्थता एवं नयपक्षातीत अवस्था की सामान्य चर्चा की । अब उनके भेद-प्रभेदों का कथन प्रसंगप्राप्त है।