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निश्चय-व्यवहार : कुछ प्रश्नोत्तर ]
[ ६६ श्री कुन्दकुन्दाचार्यकृत शास्त्र से सारभूत अर्थ को ग्रहण करके अपने और दूसरों के उपकार के लिए 'द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र' नामक ग्रन्थ है...।"
आचार्य देवसेन ने तो अपना नयचक्र का प्रारंभ ही समयसार की गाथाओं से किया है। निश्चय-व्यवहार का स्वरूप बताने वाली तीन गाथाओं को देकर वे अपना नयचक्र आरंभ करते हुए लिखते हैं कि इन गाथाओं के भावार्थ पर विचार करते हैं । इसप्रकार पूरा ग्रन्थ ही उन गाथाओं के विचार में समाप्त हो गया है।
जितने भी नयचक्र नाम से अभिहित ग्रन्थ प्राप्त होते हैं, वे सभी समयसारादि ग्रन्थों में प्रयुक्त नयों के विश्लेषण में ही समर्पित हैं । अतः उन्हें समयसार से भी बड़ा कहने का प्रश्न ही कहाँ उठता है ? उनकी रचना तो समयसार जैसे गढ़ ग्रन्थों के रहस्योद्घाटन के लिए ही हुई है। वे तो समयसाररूपी महल के प्रवेशद्वार है, सीढ़ियाँ हैं; वे तो पथ हैं, पथिक के पाथेय हैं; प्राप्तव्य नहीं; प्राप्तव्य तो एकमात्र समयसार की विषयवस्तु समयसाररूपी शुद्धात्मा ही है ।
समयसारादि ग्रंथों में पग-पग पर इसप्रकार के कथन पाते हैं कि शुद्धनिश्चयनय से ऐसा है और अशुद्धनिश्चयनय से ऐसा: सद्भूतव्यवहारनय से ऐसा है और असद्भूतव्यवहारनय से ऐसा; यह उपचरितकथन है और यह अनुपचरित । यदि आप निश्चय-व्यवहार के भेद-प्रभेदों को नहीं जानेंगे तो यह सब कैसे समझ सकेंगे ?
अतः हमारा अनुरोध है कि थोड़ा समय विषय-कषायों के पोषण से निकालकर निश्चय-व्यवहार के भेद-प्रभेदों को समझने में लगाइये, बहाना न बनाइये, बुद्धि कम होने की बातें भी मत कीजिए; क्योंकि दुनियादारी में तो आप बहुत चतुर हैं। कुतर्कों द्वारा इनके अध्ययन का निषेध भी मत कीजिए । हम आपसे समयसार का अध्ययन छोड़कर इसे पढ़ने की नहीं कह रहे हैं, हम तो दुनियाँदारी के गोरख-धंधे से थोड़ा समय निकाल कर इसके अध्ययन में लगाने की प्रेरणा दे रहे हैं।
इसपर भी यदि आप इनका परिज्ञान नहीं करना चाहते तो मत करिये; पर इनके अध्ययन को निरर्थक बताकर दूसरों को निरुत्साहित तो न कीजिए । जिनवाणी की इस अद्भुत कथन-शैली के प्रचार-प्रसार में आपका इतना सहयोग ही हमें पर्याप्त होगा।