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निश्चयनय : कुछ प्रश्नोत्तर ]
। ८५ निश्चयनय का कथन नहीं किया जाता। अपनी बुद्धि से हम एकदेशअशुद्धनिश्यनय को भी स्वीकार कर सकते हैं। जितनी कुछ नय पागम में लिखी हैं, उतनी ही हों- ऐसा नियम नहीं। वहाँ तो एक सामान्य नियम बता दिया है। उसके आधार पर अन्य नय भी यथायोग्यरूप से स्थापित की जा सकती हैं। जिसप्रकार साधक के क्षायोपशमिकभाव को एकदेशशुद्धनिश्चयनय से क्षायिकवत् पूर्णशुद्ध कहा जाता है; उसीप्रकार उसको एकदेश-अशुद्धनिश्चयनय से औदयिकवत् पूर्ण अशुद्ध भी कहा जा सकता है। इसमें कोई विरोध नहीं।।
इस एकदेशदृष्टि में बारी-बारी भले शुद्धभाग को पृथक् ग्रहण करके जीव को पूर्ण अशुद्ध कह लीजिए।"एकदेशदष्टि में दोनों ही अपनेअपने स्थान पर पूरे-पूरे दिखाई देंगे। शुद्धांश को पृथक् ग्रहण करने वाली यह एकदेशदृष्टि ही एकदेश-शुद्धनिश्चयनय कहलाती है। इस दृष्टि से साधक अवस्था में भी जीव सिद्धोंवत् पूर्णशुद्ध ही ग्रहण करने में आता है । अतः कहा जा सकता है कि यह साधक पूर्ण शुद्धोपयोग का कर्ता तथा अनन्त परमानन्द का भोक्ता है।"
(६) प्रश्न :-प्रथम प्रश्न के उत्तर में क्षयोपशमभाव को एकदेशशुद्धनिश्चयनय का विषय बताया गया है। तथा अशुद्धनिश्चयनय का स्वरूप स्पष्ट करते हुए क्षायोपशमिक और प्रौदयिक भावों के साथ जीव को तन्मय (अभेद) बताना अशुद्धनिश्चयनय का कथन बताया था। अतः प्रश्न यह है कि क्षायोपशमिक भावों के साथ अभिन्नता बताना अशुद्धनिश्चयनय का विषय है या एकदेशशुद्धनिश्चयनय का? ।
उत्तर :- दोनों ही कथन सही हैं, क्योंकि क्षयोपशमभाव में शुद्धता और अशुद्धता- दोनों भावों का मिश्रण रहता है। क्षयोपशम भाव में विद्यमान शुद्धता के अंश के साथ आत्मा की अभेदता एकदेशशुद्धनिश्चयनय के विषय में आती है और क्षयोपशमभाव में विद्यमान अशुद्धता के अंश के साथ अभेदता अशुद्धनिश्चयनय के विषय में आती है।
अतः जहाँ क्षयोपशमभाव को अशुद्धनिश्चयनय से जीव कहा गया हो, वहाँ समझना चाहिए कि यह क्षयोपशमभाव के अशुद्धाँश की अपेक्षा किया गया कथन है और जहाँ एकदेशशुद्धनिश्चयनय से कहा गया हो, वहाँ समझना चाहिए कि यह क्षयोपशमभाव के शुद्धाँश की अपेक्षा किया गया कथन है। ' नयदर्पण, पृष्ठ ६२४, पंक्ति १२-२२ २ वही, पृष्ठ ६२४, पंक्ति १-११