________________
[ जिनवरस्य नयचक्रम्
१०४ ]
पवित्रता प्रगट होती है । वही परम पवित्र होता है, वही पतित-पावन होता है; जिसके आश्रय से पवित्रता प्रगट होती है, पतितपना नष्ट होता है ।
त्रिकाली ध्रुवतत्त्व पवित्र हुआ नहीं है, वह अनादि से पवित्र ही है; उसके आश्रय से ही पर्याय में पवित्रता, पूर्ण पवित्रता प्रगट होती है । वह परमपदार्थ ही परमशुद्धनिश्चयनय का विषय है ।
पवित्र पर्याय मोना है, पारस नहीं है । परमशुद्धनिश्चयनय का विषय त्रिकाली ध्रुव पारस है; जो सोना बनाता है, जिसके छूने मात्र से लोहा सोना बन जाता है। सोने को छूने से लोहा सोना नहीं बनता, पर पारस के छूने से वह सोना बन जाता है। पवित्र पर्याय के, पूर्ण पवित्र पर्याय के आश्रय से भी पर्याय में शुद्धता प्रगट नहीं होती । पर्याय में पवित्रता त्रिकाली शुद्धद्रव्य के प्रश्रय से प्रगट होती है । अतः ध्यातापुरुष भावना भाता है कि मैं तो वह परम पदार्थ हूँ, जिसके प्राश्रय से पर्याय में पवित्रता प्रगट होती है । मैं प्रगट होनेवाली पवित्रता नही; अपितु नित्य प्रगट, परम पवित्र पदार्थ हूँ | मैं सम्यग्दर्शन नहीं; मैं तो वह हूँ, जिसके दर्शन का नाम सम्यग्दर्शन है । मैं सम्यग्ज्ञान भी नहीं; मैं तो वह हूँ, जिसके ज्ञान क नाम सम्यग्ज्ञान है । मैं चारित्र भी नहीं; मैं तो वह हूँ, जिसमें रमने क नाम सम्यक्चारित्र है ।
ध्यातापुरुष अपना अहं ध्येय में स्थापित करता है; साधन में नही साध्य में भी नहीं ।
(१८) प्रश्न :- साधन, साध्य और ध्येय में क्या अन्तर है ?
उत्तर :- परमशुद्धनिश्चयनय का विषयभूत श्रात्मद्रव्य - त्रिकाली ध्रुवतत्त्व ध्येय है, और उसके आश्रय से उत्पन्न होनेवाली सम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्ररूप एकदेशनिर्मलपर्याय मोक्षमार्ग अर्थात् साधन है तथा उस ध्रुव के परिपूर्ण प्रश्रय से पूर्ण शुद्धपर्याय का उत्पन्न होना मोक्ष है; या मोक्ष ही साध्य है |
त्रिकालीद्रव्य अर्थात् निजशुद्धात्मतत्त्व परमशुद्धनिश्चयनय क विषय है । परमशुद्धनिश्चयनय के विषयभूत निजशुद्धात्मद्रव्य के श्राश्रय उत्पन्न होनेवाली सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप एकदेशनिर्मलपर्याय क उदय होना एकदेशशुद्धनिश्चयनय का उदय होना है अर्थात् एकदेशनिर्मल पर्याय से युक्त द्रव्य एकदेशशुद्धनिश्चयनय का विषय है । तथा उसी नि शुद्धात्मद्रव्य के परिपूर्ण श्राश्रय से क्षायिकभावरूप मोक्षपर्याय का उत्प