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निश्चयनय भेद-प्रभेद ]
[ ७६ नहीं है। इस सत्य का ग्राहक - प्रतिपादक निश्चयनय है। इस बात को ध्यान में रखकर ही निश्चयनय के परमशुद्धनय को छोड़कर शेष तीन भेद किये गए हैं, जो कि किसी भी प्रकार अनुचित नही है क्योंकि निश्चयव्यवहार नयों की परिभाषा में यह स्पष्ट किया ही जा चुका है कि :
"(१) एक ही द्रव्य के भाव को उस रूप ही कहना निश्चयनय है और उपचार से उक्त द्रव्य के भाव को अन्य द्रव्य के भावस्वरूप कहना व्यवहारनय है।
(२) जिस द्रव्य की जो परिणति हो, उसे उसकी ही कहना निश्चयनय है और उसे ही अन्य द्रव्य की कहनेवाला व्यवहारनय है।
(३) व्यवहारनय स्वद्रव्य को, परद्रव्य को व उनके भावों को व कारण-कार्यादिक को किसी को किसी में मिलाकर निरूपण करता है। तथा निश्चयनय उन्ही को यथावत् निरूपण करता है, किसी को किसी मे नहीं मिलाता।"
अपनी पर्यायों से अभिन्नता-तन्मयता एव परपदार्थो से भिन्नता दिखाना ही निश्चयनय के उक्त तीन भेदो की मुख्य पहिचान है। तथा परमशुद्धनिश्चयनय का कार्य अपनी पर्यायो से भी भिन्नता दिखाना है।
इसप्रकार ये निश्चयनय के चारों भेद निजशुद्धात्मतत्व को पर और पर्याय से भिन्न अखण्ड त्रैकालिक स्थापित करते है। ये नय दृष्टि को पर
और पर्याय से हटाकर किसप्रकार स्वभावमन्मुख ले जाते है - इसकी चर्चा इनके प्रयोजन पर विचार करते समय आगे करेगे।
अब यहाँ निश्चयनय के भेदों के स्वरूप एव उनकी विषयवस्तु पर पृथक्-पृथक् विचार करते है :(क) परमशुद्धनिश्चयनय में त्रिकाली शुद्धपरमपारिणामिक सामान्यभाव का ग्रहण होता है। इसके उदाहरणरूप कुछ शास्त्रीय कथन इस प्रकार हैं :
(१) "शुद्धनिश्चयेन सहजज्ञानादिपरमस्वभावगुणानामाधारमूतत्वात्कारणशुद्धजीवः ।।
शुद्धनिश्चयनय से सहजज्ञानादि परमस्वभावभूतगुणो का आधार होने से कारणशुद्धजीव है।" 'जिनवरस्य नयचक्रम्, पृष्ठ ३३-३४ २ नियमसार, गाथा ६ की संस्कृत टीका