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निश्चयनय : भेद-प्रभेद ]
[८१ इदमेकवेशव्यक्तिरूपं शुद्धनयव्याख्यानमत्र परमात्मध्यानभावनानाममालायां यथासंभवं सर्वत्र योजनीयमिति ।'
उस परमध्यान में स्थित जीव को जिस वीतराग परमानन्दरूप सुख का प्रतिभास होता है, वही निश्चय मोक्षमार्ग स्वरूप है।.........."वही शुद्धात्मस्वरूप है, वही परमात्मस्वरूप है, वही एकदेशप्रगटतारूप विवक्षित एकदेशशुद्धनिश्चयनय से स्वशुद्धात्म के संवेदन से उत्पन्न सुखामृतरूपी जल के सरोवर में रागादिमल रहित होने के कारण परमहंस स्वरूप है। इस एकदेशव्यक्तिरूप शुद्धनय के व्याख्यान को परमात्मध्यान भावना की नाममाला में जहाँ यह कथन है, वहाँ परमात्मध्यान भावना के परब्रह्म स्वरूप, परमविष्णुस्वरूप, परमशिवस्वरूप, परमबुद्धस्वरूप, परमजिनस्वरूप........."आदि अनेक नाम गिनाए गए है। उन्हें परमात्मतत्त्व के ज्ञानियों द्वारा जानना चाहिए।" (घ) सोपाधिक गण-गणी में अभेद दर्शानेवाला अशद्धनिश्चयनय है, जैसे- मतिज्ञानादि को जीव कहना।२ राग-द्वेषादि विकारीभावों को जीव कहनेवाले कथन भी इसी नय की सीमा में आते है। यह नय प्रौदयिक और क्षायोपशयिक भावों को जीव के साथ अभेद बताता है, उनके साथ कर्ता-कर्म आदि भी बताता है। इसके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए बृहद्रव्यसंग्रह, गाथा ८ की टीका में लिखा है :
"अशुद्धनिश्चयस्यार्थः कथ्यते - कर्मोपाधिसमुत्पन्नत्वादशुद्ध, तत्काले तप्तायःपिण्डवत्तन्मयत्वाच्च निश्चयः, इत्युभयमेलापकेनाशुद्धनिश्चयो मण्यते ।
अशुद्धनिश्चय का अर्थ कहा जाता है - कर्मोपाधि से उत्पन्न हुआ होने से 'अशुद्ध' कहलाता है और उससमय तपे हुए लोहखण्ड के गोले के समान तन्मय होने से 'निश्चय' कहलाता है। इसप्रकार अशुद्ध और निश्चय इन दोनों का मिलाप करके अशुद्धनिश्चय कहा जाता है।"
इसके कतिपय उदाहरण इसप्रकार है :(१) "ते चेव भावरूवा जीवे भूदा खोवसमदो य ।
ते होंति भावपारणा प्रसुद्धरिगच्छयरपयेण गायव्वा ॥3 'बृहद्रव्यसंग्रह गाथा ५६ की टीका २ 'सोपाधिकगुणगुण्यभेदविषयोऽशुद्धनिश्चयो यथा-मतिज्ञानादयो जीव इति'-पालाप
पद्धति, अन्तिम पृष्ठ 3 द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र, गाथा ११३