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निश्चय-व्यवहार : कुछ प्रश्नोत्तर ]
[ ६७ (४) प्रश्न :- निश्चय-व्यवहार के भेद-प्रभेदों में जाने की क्या आवश्यकता है ? बस उनका, सामान्य स्वरूप जानलें और निश्चयनय के विषयभूत अर्थ में अपना उपयोग लगादें, क्योंकि साध्यसिद्धि तो उससे ही होने वाली है, विकल्पजाल में उलझने से तो कुछ लाभ है नहीं ?
उत्तर :-विकल्पजाल में उलझने से तो कोई लाभ नहीं है-बात तो ऐसी ही है, पर निश्चयनय और व्यवहारनय तो अनेक प्रकार के है, कौनसे निश्चयनय के विषय में दष्टि को केन्द्रित करना है-इसका निर्णय लिये बिना किसमें दृष्टि केन्द्रित करोगे?
दूसरी बात यह भी तो है कि जिनवाणी में जिस वस्तु को एक प्रसंग में निश्चयनय का विषय बताया जाता है, उसी वस्तु को अन्य प्रसंग में व्यवहारनय का विषय कह देते हैं । इसका सोदाहरण विशेष स्पष्टीकरण निश्चय और व्यवहार के भेद-प्रभेदों पर विचार करते समय विस्तार से करेगे।
इसप्रकार जिनवारणी में प्रयुक्त नयचक्र अत्यन्त जटिल है, उसे गहराई से समझने के लिए उपयोग को थोड़ा सूक्ष्म बनाना होगा; अरुचि दिखाकर पिण्ड छुड़ाने से काम नहीं चलेगा। जब प्रात्मानुभव प्राप्त करने के लिए कमर कसी है, तो थोड़ा-सा पुरुषार्थ नय-कथनों के मर्म के समझने में भी लगाइये । जटिल नयचक्र को समझे बिना जिनवाणी के अवगाहन करने में कठिनाई तो होगी ही, साथ ही पद-पद पर शंकाएँ भी उपस्थित होंगी, जिनका निराकरण नय-विभाग के समझने पर ही संभव होगा।
समयसार की २६वीं गाथा में जब अप्रतिबद्धशिष्य देह के माध्यम से की जानेवाली तीर्थकरों की स्तुतियों से प्रात्मा और देह की एकता संबंधी आशंका प्रकट करता है, तो आचार्य यही उत्तर देते हैं कि तू नयविभाग से अनभिज्ञ है-इसलिए ऐसी बात करता है। उसकी शंका का समाधान भी नय-विभाग समझाकर ही देते है और अन्त में कहते हैं :___"नय-विभाग के द्वारा अच्छी तरह समझाये जाने पर भी ऐसा कौन मर्ख होगा कि जिसको प्रात्मबोध नहीं होगा अर्थात् आत्मा का अनुभव नहीं होगा? नय-विभाग से समझाये जाने पर योग्य पात्र को बोध की प्राप्त होती ही है।"
आचार्य कुन्दकुन्द के प्रसिद्ध ग्रंथराज नियमसार की तात्पर्यवृत्ति टीका समाप्त करते हुए पद्मप्रभमलधारीदेव कहते हैं :' समयसार, कलश २८