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[ जिनवरस्य नयचक्रम
पाता । तथा जबतक वह प्रत्यक्ष अनुभव में नहीं आ जाता तबतक उसके पक्षों को जानने के विकल्प उठना स्वाभाविक ही है । उन विकल्पों के समाधान हेतु ही नयों की प्रवृत्ति होती है । कहा भी है :
" एवमात्मा यावद्व्यवहारनिश्चयाभ्यां तत्वमनुभवति तावत्परोक्षानुभूतिः । प्रत्यक्षानुभूतिर्नयपक्षातीता ।'
इसप्रकार आत्मा जबतक व्यवहार और निश्चय के द्वारा तत्त्व का अनुभव करता है, तबतक परोक्षानुभूति होती है, क्योंकि प्रत्यक्षानुभूति नयपक्षातीत होती है ।"
"यथा किश्चिद्देवदत्तोऽपूर्वान् परोक्षानश्वान् राज्ञे निवेदयति । स यथा राजा हृस्वदीर्घलोहितादिधर्मावबोधाय पौनःपुन्याद्विकल्प्य पृच्छति । तथा परोक्षार्थ श्रुत निवेदिताऽनंतधर्मावबोधनाय विकल्पा भावंति ।
जैसे - कोई देवदत्त नामक पुरुष राजा से अपूर्व - परोक्ष घोड़ों के बारे में चर्चा करता है। तब वह राजा उससे बड़ी ही उत्सुकता से - वे कैसे हैं - छोटे हैं या बड़े हैं ? उनका रंग कैसा है - लाल है क्या ? आदि उनके अनेक धर्मों - गुणों के बारे में बार-बार विकल्प उठाकर पूछता है; उसीप्रकार परोक्ष पदार्थ की चर्चा होने पर उसमें रहने वाले अनन्त धर्मों के बारे में विकल्प होते हैं, विकल्पों का होना स्वाभाविक ही है ।"
किन्तु जब वे घोड़े जिनकी चर्चा राजा ने देवदत्त से सुनी थी, राजा के सामने उपस्थित हो जावें तब सब कुछ प्रत्यक्ष स्पष्ट हो जाने से विकल्पों का शमन सहज हो जाता है; उसीप्रकार जब प्रात्मा अनुभव में प्रत्यक्ष आ जाता है. तब नयरूप विकल्पों का शमन हो जाना स्वाभाविक है, सहजसिद्ध है । यही कारण है कि प्रत्यक्षानुभूति नयपक्षातीत - विकल्पानीत होती है।
यहाँ एक प्रश्न संभव है कि जब प्रत्यक्षानुभूति नयपक्षातीत है और सुखी होने के लिए एक प्रत्यक्षानुभूति ही उपादेय है, विकल्पजाल में उलझने से कोई लाभ नहीं है, तो फिर हमें निश्चयनय और व्यवहारनय के विकल्पजाल में क्यों उलझाते हो
यदि हम नयों के स्वरूप को जाने बिना ही नयपक्षातीत हो जाते हैं तो फिर नयों के विस्तार में जाने की क्या आवश्यकता है ? भगवान महावीर के जीव ने शेर की पर्याय में और पार्श्वनाथ भगवान के जीव ने हाथी की
श्रुतभवनदीपक नयचक्र, पृष्ठ ३२
२ वही, पृष्ठ ३६