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[ जिनवरस्य नयचक्रम रही हो । जबकि ऐसी कोई बात नहीं है, यह गाथा तो निश्चय-व्यवहार की वास्तविक स्थिति को ही स्पष्ट करती है।
इसमें कहा गया है कि व्यवहार के बिना तीर्थ का लोप हो जावेगा और निश्चय के बिना तत्त्व का लोप हो जायेगा अर्थात् तत्त्व की प्राप्ति नहीं होगी। यहाँ तीर्थ का अर्थ उपदेश और तत्त्व का अर्थ शुद्धात्मा का अनुभव है। उपदेश की प्रक्रिया प्रतिपादन द्वारा सम्पन्न होती है, तथा प्रतिपादन करना व्यवहार का काम है, अतः व्यवहार को सर्वथा असत्यार्थ मानने से तीर्थ का लोप हो जावेगा-ऐसा कहा है। शुद्धात्मा का अनुभव निश्चयनय के विषयभूत अर्थ में एकाग्र होने पर होता है । अतः निश्चयनय को छोड़ने पर तत्त्व की प्राप्ति नहीं होगी अर्थात् आत्मा का अनुभव नहीं होगा-ऐसा कहा है । द्वादशांग जिनवाणी में व्यवहार द्वारा जो भी उपदेश दिया गया है, उसका सार एकमात्र प्रात्मा का अनुभव ही है । आत्मानुभूति ही समस्त जिनशासन का सार है।
इसप्रकार इस गाथा में यही तो कहा गया है कि उपदेश की प्रक्रिया में व्यवहारनय प्रधान है और अनुभव की प्रक्रिया में निश्चयनय प्रधान है।
प्रात्मा के अनुभव में व्यवहारनय स्वतः गौण हो गया है। इसलिए आत्मानुभव के अभिलाषी आत्मार्थी निश्चयनय के समान ही व्यवहार को उपादेय कैसे मान सकते हैं ? व्यवहार की जो उपयोगिता है, वे उसे भी अच्छी तरह जानते हैं । ज्ञानीजन जब व्यवहारनय को हेय या असत्यार्थ कहते हैं, तो उसे गौण करके ही असत्यार्थ कहते हैं, अभाव करके नहींयह बात ध्यान में रखने योग्य है।
___ गाथा की प्रथम पंक्ति में कहा गया है कि यदि तुम जिनमत को प्रवर्ताना चाहते हो तो व्यवहार-निश्चय को मत छोड़ो। 'प्रवर्ताना' शब्द के दो भाव होते हैं-एक तो तीर्थ-प्रवर्तन और दूसरा प्रात्मानुभवन । तीर्थप्रवर्तन का अर्थ जिनधर्म की उपदेश-प्रक्रिया को निरन्तरता प्रदान करना है । अतः यदि जिनधर्म की उपदेश-प्रक्रिया को निरन्तरता प्रदान करना है तो वह व्यवहार द्वारा ही संभव होगा, अनिर्वचनीय या 'न तथा' शब्द द्वारा वक्तव्य निश्चयनय से नहीं; किन्तु जिनमत का वास्तविक प्रवर्तन तो प्रात्मानुभवन ही है। अतः आत्मानुभूतिरूप जिनमत का प्रवर्तन तो निश्चयनय के विषयभूत अर्थ में मग्न होने पर ही संभव है। यहां उपदेश के विकल्परूप व्यवहारनय को कहाँ स्थान प्राप्त हो सकता है ?