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निश्चय-व्यवहार : कुछ प्रश्नोत्तर .
निश्चय-व्यवहार के भेद-प्रभेदों के विस्तार में जाने के पहले उनके सम्बन्ध में उठने वाले कुछ सहज प्रश्नों के सम्बन्ध में विचार कर लेना उचित होगा; क्योंकि इन आशंकाओं के बने रहने पर भेद-प्रभेदों के विस्तार में सहज जिज्ञासु का भी निश्शंक प्रवेश नहीं होगा। मुक्ति के मार्ग में नयों की उपयोगिता एवं उनके हेयोपादेयत्व का सही निर्णय न हो पाने की स्थिति में इनके विस्तार में जाने की जैसी रुचि और पुरुषार्थ जागृत होना चाहिए, वैसी रुचि और पुरुषार्थ जागृत नहीं होगा; जैसी निष्पक्ष दृष्टि बननी चाहिए, वैसी निष्पक्ष दृष्टि नहीं बनेगी।
इस बात को ध्यान में रखकर यहाँ कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर विचार किया जा रहा है।
(१) प्रश्न :- समयसार गाथा १२ की आत्मख्याति टीका में प्राचार्य अमृतचन्द्र ने एक गाथा उद्धृत की है, जो इसप्रकार है :
"जह जिरणमयं पवज्जह ता मा ववहारपिच्छए मुयह ।
एक्केरण विरणा छिज्जइ तित्थं अण्णण उरण तच्चं ॥ यदि जिनमत को प्रवर्ताना चाहते हो तो निश्चय-व्यवहार में से एक को भी मत छोड़ो, क्योंकि एक (व्यवहार) के बिना तीर्थ का लोप हो जावेगा और दूसरे (निश्चय) के बिना तत्त्व का लोप हो जावेगा।"
जब समयसार में ऐसा कहा है तो फिर आप निश्चय-व्यवहार में भेद क्यों करते हैं, एक को हेय और दूसरे को उपादेय क्यों कहते हैं ? जब दोनों नयों की एक-सी उपयोगिता और आवश्यकता है तो फिर उनमें भेदभाव करना कहाँ तक ठीक है ?
उत्तर :- भाई ! हम क्या कहते हैं और उक्त गाथा का क्या भाव है ? इसे ठीक से न समझ पाने के कारण ही यह प्रश्न उठता है। कुछ लोगों द्वारा जान-बूझकर भी उक्त गाथा का आधार देकर इस प्रश्न को कुछ इसतरह उछाला जाता है, प्रस्तुत किया जाता है कि जिससे समाज को ऐसा भ्रम उत्पन्न हो कि जैसे हम उक्त गाथा के भाव से सहमत नहीं हैं, तथा उक्त गाथा का अर्थ भी इसप्रकार प्रस्तुत किया जाता है जैसे यह गाथा व्यवहारनय को निश्चयनय के समान ही उपादेय प्रतिपादित कर