________________
निश्चय और व्यवहार ]
[६१ पर्याय में प्रात्मानुभूति प्राप्त की थी, प्रत्यक्षानुभूति की थी; तो क्या वे उस समय नयों के इस विस्तार को जानते थे? नहीं, तो फिर आप हमें ही क्यों इस विस्तार में उलझाना चाहते हैं ? क्यों न हम भी शेर और हाथी के समान नयपक्षातीत हो जावें, विकल्पातीत हो जावें, आत्मानुभूति प्राप्त कर लें ? या फिर 'तुषमासं घोषन्तो' वाले शिवभूति मुनिराज के समान अपने चरमलक्ष्य को प्राप्त कर लें।
___ कर लीजिए न, कौन रोकता है ? यदि आप कर सकते हैं तो अवश्य कर लीजिए । उपादेय तो प्रत्यक्षानुभूति, निर्विकल्प-अनुभूति ही है, नयविकल्प नहीं। नयों का स्वरूप तो प्रत्यक्षानुभूति में सहायक जानकर ही बताया जा रहा है, नयों के विकल्पों में ही उलझे रहने के लिए नहीं। नयचक्र में भी ऐसा ही कहा है, जैसा कि पहले लिखा जा चुका है :
"यद्यपि आत्मा स्वभाव से नयपक्षातीत है, तथापि वह प्रात्मा नयज्ञान के बिना पर्याय में नयपक्षातीत होने में समर्थ नहीं है। अर्थात् विकल्पात्मक नयज्ञान बिना निर्विकल्प (नयपक्षातीत) प्रात्मानुभूति संभव नहीं है, क्योंकि अनादिकालीन कर्मवश से यह असत्-कल्पनाओं में उलझा हुमा है । अतः सत्-कल्पनारूप अर्थात् सम्यक्-विकल्पात्मक नयों का स्वरूप कहते हैं।"
__प्राचार्य उमास्वामी ने भी तत्त्वार्थो के श्रद्धान को सम्यक्दर्शन कहा है तथा तत्त्वार्थों के अधिगम का उपाय प्रमारण और नयों को निरूपित किया है।
___"नयदृष्टि से विहीन व्यक्ति को वस्तुस्वभाव की उपलब्धि नहीं हो सकती और वस्तुस्वभाव की उपलब्धि बिना सम्यग्दर्शन अर्थात् आत्मानुभव कैसे हो सकता है ?"
नयचक्रकार माइल्लधवल की उक्त उक्ति का उल्लेख भी प्रारंभ में किया ही जा चुका है।
फिर भी आप नयों और उनके द्वारा प्रतिपादित वस्तुस्वरूप को समझे बिना ही प्रात्मानुभूति प्राप्त करने का आग्रह रखते हैं तो भले ही रखें।
हां, यह बात अवश्य है कि माप नयों के विस्तार में न जाना चाहें तो भले ही न जावें, पर उनका सामान्यरूप से सम्यक्ज्ञान तो करना ही होगा।
श्रुतभवनदीपक नयचक्र, पृष्ठ २६ २ तत्स्वार्थसूत्र, प्र० १, सूत्र २ एवं ६