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[ जिनवरस्य नयचक्रम्
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जीवन में वे दोनों मित्र ही नहीं, घनिष्ठ मित्र हैं । उनमें ऐसी मित्रता देखी जा सकती है कि एक दूसरे के पीछे जान की भी बाजी लगा सकता है; पर खेल में प्रतिद्वन्द्वी - विरोधी शत्रु भी ऐसे कि चाहे जान चली जाए पर सामने वाले के बादशाह को शह दिये बिना न मानेंगे; प्यादे को ही नहीं, वजीर को भी मारे बिना न रहेंगे । जीवन में वे एक दूसरे को क्षमा कर सकते है, पर खेल में नहीं; खेल में तो उसे हराने की निरन्तर जी-जान से कोशिश करते हैं । न करें तो फिर खेल में वह प्रानन्द न प्रावेगा जो माना चाहिए ।
खेल में खेल के प्रति ईमानदार, खेल के पक्के; और जीवन में जीवन के प्रति ईमानदार, जीवन के पक्के - जैसे दो खिलाड़ी होते हैं; वैसे जिनवारणी में भी दोनों नय अपने-अपने विषय के पक्के हैं । जिसका जो विषय है, उसे वे अपना-अपना विषय बनाते हैं । विषयगत विरोध के कारण वे परस्पर विरोधी भी हैं और सम्यक् श्रुतज्ञान के भेद होने से प्रभिन्न साथी भी । दोनों ही अपने काम के पक्के है, अपने-अपने काम पूरी ईमानदारी से बखूबी निभाते हैं ।
व्यवहार का काम भेद करके समझाना है, संयोग का भी ज्ञान कराना है; सो वह प्रभेद - अखण्ड वस्तु में भेद करके समझाता है, संयोग का ज्ञान कराता है; पर भेद करके भी वह समझाता तो प्रभेद - प्रखण्ड को ही है, संयोग से भी समझाता असंयोगी तत्त्व को ही है; तभी तो उसे निश्चय का प्रतिपादक कहा जाता है । यदि वह प्रभेद, प्रखण्ड, असंयोगी तत्त्व को न समभावे तो उसे निश्चय का प्रतिपादक कौन कहे ?
और निश्चय का काम व्यवहार का निषेध करना है; निषेध करके अभेद, अखण्ड, प्रसंयोगी तत्त्व की ओर ले जाना है । यही कारण है कि वह अपने विरोधी प्रतीत होने वाले प्रभिन्न-मित्र व्यवहार का भी बड़ी निर्दयता से निषेध कर देता है । साथी समझकर किंचित् मात्र भी दया नहीं दिखाता ; यदि दिखावे तो अपने कर्त्तव्य का पालन कैसे करे ?
यदि वह व्यवहार का निषेध न करे तो निश्चय के विषयभूत शुद्धात्मा की प्राप्ति कैसे हो, आत्मा का अनुभव कैसे हो ? श्रात्मानुभूति की प्राप्ति के लिए ही तो यह सब प्रयास है । 'व्यवहार तो हमारा मित्र है - उसका निषेध कैसे करें ?' यदि इस विकल्प में उलझ जावे तो फिर उसका भूतार्थपना ही नहीं रहेगा ।
निश्चय व्यवहार का निषेध कोई द्वेष के कारण थोड़े ही करता है;