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[ जिनवरस्य मयचकर समाधान :- ऐसा नहीं है, क्योंकि दोनों नयों में भेद है। वास्तव में निश्चयनय अनिर्वचनीय है, इसलिए तीर्थ की स्थापना करने के लिए वाददूक' व्यवहारनय का होना श्रेयस्कर है।
__यद्यपि यहाँ व्यवहारनय को 'वावदूक' जैसे शब्द द्वारा प्रतिपादक माना है, तथापि उसकी उपयोगिता स्वीकार की गई है।
प्राचार्यकल्प पं० टोडरमलजी ने मोक्षमार्गप्रकाशक में इसीप्रकार का प्रश्न उठाकर उसका उत्तर समयसार ग्रन्थ का आधार लेकर दिया है, तथा स्वयं ने भी बहुत अच्छा स्पष्टीकरण किया है, जो मूलतः पठनीय है। उसका कुछ प्रावश्यक अंश इसप्रकार है :
"फिर प्रश्न है कि यदि व्यवहारनय असत्यार्थ है, तो उसका उपदेश जिनमार्ग में किसलिए दिया? एक निश्चयनय ही का निरूपण करना था।
समाधान :-ऐसा ही तर्क समयसार में किया है। वहां यह उत्तर दिया है :
जह ण वि सक्कमणज्जो प्रज्जभासं विणा दुगाहेदूं । तह ववहारेण विणा परमत्थुवदेसरगमसक्कं ॥८॥
अर्थ:-जिसप्रकार अनार्य अर्थात् म्लेच्छ को म्लेच्छ भाषा बिना अर्थ ग्रहण कराने में कोई समर्थ नहीं है; उसीप्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश अशक्य है। इसलिए व्यवहार का उपदेश है ।
तथा इसी सूत्र की व्याख्या में ऐसा कहा है कि :व्यवहारनयो नानुसतव्यः।
इसका प्रय है-इस निश्चय को अंगीकार करने के लिए व्यवहार द्वारा उपदेश देते हैं। परन्तु व्यवहारनय है सो अंगीकार करने योग्य नहीं है।
प्रश्न :-व्यवहार बिना निश्चय का उपदेश कैसे नहीं होता? और व्यवहारनय कसे अंगीकार नहीं करना? सो कहिये।
समाधान :-निश्चय से तो मारमा परद्रव्यों से भिन्न, स्वभावों से अभिन्न स्वयंसिद्ध वस्तु है; उसे जो नहीं पहिचानते, उनसे उसीप्रकार कहते रहें तब तो वे समझ नहीं पायें; इसलिए उनको व्यवहारनय से शरीरादिक परद्रव्यों की सापेक्षता द्वारा नर-नारक-पृथ्वीकायादिरूप जीव के विशेष
' वावदूक-बातूनी, बकवादी, अच्छा बोलने वाला, वक्ता [संस्कृत शब्दार्थ-कौस्तुभ, पृष्ठ १०४४]