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मूलनय : कितने ?
जिनागम में विभिन्न स्थानों पर विभिन्न अपेक्षाओं को ध्यान में रखकर नयों के भेद-प्रभेदों का वर्गीकरण विभिन्न रूपों में किया गया है। यदि एक स्थान पर दो नयों की चर्चा है तो दूसरी जगह तीन प्रकार के नयों का उल्लेख मिलता है। इसीप्रकार यदि तत्त्वार्थसूत्र में सात नयों की बात आती है तो प्रवचनसार में ४७ नय बताये गए हैं।'
'गोम्मटसार' व 'सन्मतितक' में तो यहां तक लिखा है :
"जावदिया वयणवहा तावविया चेव होति नयवादा।' जितने वचन-विकल्प हैं, उतने ही नयवाद हैं अर्थात् नय के भेद हैं।"
'श्लोकवार्तिक' के 'नयविवरण' में श्लोक १७ से १९ तक प्राचार्य विद्यानन्दि लिखते हैं कि नय सामान्य से एक, विशेष में-संक्षेप में दो, विस्तार से सात, और अति विस्तार से संख्यातभेद वाले हैं।
धवलाकार कहते हैं कि प्रवान्तर भेदों की अपेक्षा नय असंख्य प्रकार के हैं। उनका मूल कथन इसप्रकार है :"एवमेते संक्षेपेण नयाः सप्तविषाः, प्रवान्तर मेदेन पुनरसंख्येयाः।'
इसतरह संक्षेप में नय सात प्रकार के हैं और अवान्तर भेदों से असंख्यात प्रकार के समझना चाहिए।"
'सर्वार्थसिद्धि' के अनुसार नय अनन्त भी हो सकते हैं, क्योंकि प्रत्येक वस्तु की शक्तियां अनन्त हैं, अतः प्रत्येक शक्ति की अपेक्षा भेद को प्राप्त होकर नय अनन्त-विकल्परूप हो जाते हैं ।
' तत्त्वार्थसूत्र, म० १, सूत्र ३३ २ प्रवचनसार, परिशिष्ट 3 (क) गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ८९४
(ख) सन्मतितर्क, का० ३, गाथा ४७
धवला, पु० १, खंड १, भाग १, सूत्र १, पृष्ठ ६१ ५ सर्वार्थसिद्धि, म० १, सूत्र ३३ की टीका, पृष्ठ १०२