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[ जिनवरस्य नयचक्रम्
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सामाजिक राजनीति में भी इस गंभीर विषय को मत घसीटो। इसका यद्वा तद्वा प्रयोग भी मत करो, इसे समझो, इसकी प्रयोगविधि में कुशलता प्राप्त करो - इसमें ही सार है और सब तो संसार है व संसारपरिभ्रमरण का ही साधन है ।
नयों के स्वरूपकथन की आवश्यकता और उपयोगिता प्रतिपादित करते हुए आचार्य देवसेन लिखते हैं :
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"यद्यप्यात्मा स्वभावेन नयपक्षातीतस्तथापि स तेन बिना तथाविधो न भवितुमहंत्यनादिकर्मवशादसत्कल्पनात्मकत्वादतो नयलक्षरणमुच्यते ।। ' यद्यपि ग्रात्मा स्वभाव से नयपक्षातीत है, तथापि वह आत्मा नयज्ञान के बिना पर्याय में नयपक्षातीत होने में समर्थ नहीं है, अर्थात् विकल्पात्मक नयज्ञान के बिना निर्विल्पक ( नयपक्षातीत ) प्रात्मानुभूति संभव नहीं है, क्योंकि अनादिकालीन कर्मवश से यह असत्कल्पनाओं में उलझा हुआ है । अतः सत्कल्पनारूप अर्थात् सम्यक् विकल्पात्मक नयों का स्वरूप कहते हैं ।" नयों के स्वरूप को जानने की प्रेरणा देते हुए माइल्लधवल लिखते हैं :
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"जइ इच्छह उत्तरिदु अण्णारणमहोर्वाह सुलीलाए । तारादुं कुरणह मई गयचक्के दुरणयतिमिरमत्तण्डे ॥
यदि लीला मात्र से अज्ञानरूपी समुद्र को पार करने की इच्छा है तो दुर्नयरूपी अंधकार के लिए सूर्य के समान नयचक्र को जानने में अपनी बुद्धि को लगाओ ।"
क्योंकि :
"लवणं व इरणं भरिणयं रणयचक्कं सयलसत्यसुद्धियरं । सम्माविय सुन मिच्छा जीवाणं सुरणयमग्गर हियाणं ॥ ३
जैसे नमक सब व्यंजनों को शुद्ध कर देता है, सुस्वाद बना देता है; वैसे ही समस्त शास्त्रों की शुद्धि का कर्ता इस नयचक्र को कहा है । सुनय के ज्ञान से रहित जीवों के लिए सम्यकश्रुत भी मिथ्या हो जाता है ।"
१ श्रुतभवनदीपक नयचक्र, पृष्ठ २६
२
द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र, गाथा ४१६
3 वही, गाथा ४१७