Book Title: Jeev Vigyan
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Akalankdev Vidya Sodhalay Samiti

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Page 25
________________ जीव-विज्ञान इसी तरह से एक अज्ञान भाव भी है। अज्ञान भाव को इसमें इसलिए रखा है कि जैसे अभी आपको बताया था कि पाँच प्रकार के ज्ञान होते हैं । उन पाँच प्रकार के ज्ञानों में से कुछ ज्ञान का तो हमारे अंदर क्षयोपशम हो गया। जैसे मतिज्ञान है, और श्रुतज्ञान है, ये तो क्षयोपशम रूप में हैं । अवधिज्ञान नहीं है, मन:पर्ययज्ञान नहीं है, केवलज्ञान नहीं है। जब तक ये ज्ञान प्रगट नहीं होंगे तब तक हमारे इन ज्ञानों सम्बन्धी आवरण का पूरा उदय चल रहा है। केवलज्ञानावरण का पूर्णतः उदय चल रहा है इसी कारण हमें केवलज्ञान नहीं होगा। तब तक ये हमारे अंदर औदयिकभाव के रूप में भी एक अज्ञान चलता रहेगा। इस तरह से अज्ञान दो प्रकार का हो गया-एक क्षायोपशमिक अज्ञान - उस अज्ञान में क्या लिया जाएगा? मिथ्यात्व के साथ होने वाले तीन ज्ञान और दूसरा यहाँ जो अज्ञान है वह ज्ञानावरण कर्म के साथ सामान्य उदय में चलने वाले अज्ञान । जब तक केवलज्ञानावरण कर्म का उदय चल रहा है तब तक हम अज्ञानी हैं, तब तक हमारे अंदर यह अज्ञान नाम का औदयिक भाव चल रहा है। यह अज्ञान रूप औदयिक भाव है जो केवलज्ञानावरण कर्म के उदय के साथ-साथ तक चलता रहेगा । असंयम—- असंयम भाव भी औदयिक भाव है। यह हमारे ऊपर इस तरह से हावी हो जाता है कि हमें संयत बनने ही नहीं देता है । यह असंयत नाम का औदयिकभाव कहाँ तक रहेगा? आचार्य कहते हैं कि मिथ्यादृष्टि जीव से लेकर चौथे गुणस्थान वाले सम्यग्दृष्टि जीव तक रहेगा, जब तक कि वह देशव्रतों को ग्रहण न कर ले तब तक उसमें असंयत नाम का औदयिकभाव चलेगा। इसके कारण वह संयत नहीं हो सकता है। इसलिए जो अविरत सम्यग्दृष्टि जीव होते हैं, उनमें चारित्र नहीं होता है। उनका नाम ही है अविरत - अर्थात् व्रती नहीं है, चारित्र नहीं है क्योंकि चारित्र जो होता है वह क्षयोपशमभाव होता है और असंयत जो है वह औदयिक भाव है। इसलिए उनमें औदयिक भाव रूप असंयम हमेशा बना रहता है । चारित्र उनके पास में नहीं होता है। यह हमेशा ध्यान रखना कि अवरित सम्यग्दृष्टि जीव में चारित्र नहीं होता। इसलिए अविरत सम्यग्दृष्टियों में चारित्र न व्यवहार से होता है और न ही निश्चय से होता है । असिद्धत्व - यह असिद्वत्व भाव और आगे चला गया। अपना अज्ञान भाव कहाँ तक गया? जब तक हमें केवलज्ञान नहीं हुआ अर्थात् अरिहन्तों से पहिले-पहिले । इस असिद्वत्व भाग में अरहन्त भगवान भी आ गए क्योंकि जब तक किसी भी कर्म का उदय रहेगा तक तक असिद्वत्व रहेगा। अरहन्त भगवान में चार अघातिया कर्मों का उदय चल रहा है। आयु, नाम, गोत्र, वेदनीय कर्मों का उदय चल रहा है। इसलिए उन्हें अभी सिद्धत्वपने की अनुभूति नहीं होगी। जब वह उन कर्मों से रहित हो जाएंगे तब वह सिद्ध बनेंगे, तब तक उनके अंदर असिद्धत्व भाव बना रहेगा। जब हम असिद्धत्व भाव को उन अरहन्तों तक भी ले जा सकते है, तो आपको असंयत भाव को स्वीकार करने में क्या बाधा हो रही है? चौथे गुणस्थान तक असंयत भाव रहता है-इस सिद्धान्त को स्वीकार कर लेना चाहिए। क्योंकि हम अरिहन्त भगवन्तों तक भी यह असिद्धत्व भाव ले जा रहे हैं तो जो जहाँ पर 25

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