Book Title: Jeev Vigyan
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Akalankdev Vidya Sodhalay Samiti

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Page 29
________________ जीव-विज्ञान जीव का लक्षण | उपयोग ज्ञानोपयोग (साकार) | _दर्शनोपयोग 5 सम्यग्ज्ञान सामान्य प्रतिमास (निराकार) चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन । अवधिदर्शन केवलदर्शन -3 मिथ्याज्ञान | उपयोग (अध्यात्म भाषा से) शुभोपयोग (देव, शास्त्र, गुरु की भक्ति अशुभोपयोग (5 पाप, 4 कषाय व इन्द्रिय विषयों में प्रवृत्ति) शुद्धोपयोग । (शुभ और अशुभ उपयोग से रहित वीतराग भाव) आदि) आत्मा के स्वभाव हैं। इन दोनों के माध्यम से ही चेतन पर-पदार्थों को जानता है और देखता है। जब उसको ज्ञान होता है तो वह स्व-पदार्थ को भी जानने और देखने लग जाता है। इस तरह से उपयोग के मूल में दो भेद है। ये दोनों ही भेद चैतन्य के अनविधाई परिणाम है। अर्थात् चैतन्य से उत्पन्न होने वाले परिणाम हैं, चैतन्य की क्रिया हैं। अन्य अनेक प्रकार के गुण भी आत्मा में रहते हैं, लेकिन उनमें चेतना की अनुभूति नहीं होती है। यह भी कह सकते है कि उसमें चेतना के उपयोग का विभाजन नहीं होता है। आत्मा में गुण तो बहुत हैं। सुख गुण है, वीर्य गुण है, अन्य सम्यक्त्व आदि गुण हैं। लेकिन इन गुणों में चेतना कभी विभाजित नहीं होती है। चेतना का विभाजन करने वाले गुण तो केवल दो ही हैं, जो दो उपयोग के रूप में हैं। एक ज्ञानोपयोग और दूसरा दर्शनोपयोग। अब आपको कभी भी सुख में उपयोग लगाना है तो सुख उपयोग नाम की चेतना में कोई अन्य क्रिया नहीं होगी। शक्ति रूप उपयोग नाम से चेतना में कोई अलग से क्रिया नहीं होगी। ये गुण तो आत्मा में रहेंगे जैसे-सुख है, शक्ति है, सम्यक्त्व है, चारित्र, श्रद्धा, अनेक चीजें हैं। लेकिन ये सब इस ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग के साथ ही रहेंगी। उपयोग में तो केवल ये दो ही चीजें आएंगी। उनके अलावा जितनी भी चीजें होंगी वे सभी इसी से सम्बन्ध रखने वाली होंगी। इसलिए धीरे-धीरे केवल उपयोग ही आत्मा में रह जाते हैं और आत्मा धीरे-धीरे उपयोग स्वरूप वाला हो जाता है। जैसे-जैसे वह सिद्धत्व की ओर ढलता चला जाता है, आत्मा के जितने भी विभाजन करने वाले 29

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