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जीव-विज्ञान
नपुंसक लिंग का होता है और वेद होता है वह पुल्लिंग में प्रयोग होता है। यह बताया जा रहा है इस लिंग और वेद में अन्तर नहीं होते हुए भी इनका अलग-अलग प्रयोग क्यों किया गया ?यह एक चिन्तनीय विषय है। आचार्य कहते हैं नारकी जीव नपुंसक वेद वाले होते हैं और सम्मूर्छन जीव भी नपुंसक वेद वाले होते हैं। तात्पर्य यह है कि यह जीव न तो पुरुष वेद वाले होते हैं और न ही स्त्री वेद वाले होते हैं। इनका लिंग नपुंसक लिंग ही होता है। यहाँ यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि ये लिंग या वेद दो प्रकार से व्याख्यायित किये जाते हैं। एक द्रव्यलिंग कहा जाता है वह शरीर की अपेक्षा से कहा जाता है। शरीर में हमें जो अवयव जन्म से ही उपांगों के रूप में मिलते हैं उसे द्रव्यलिंग कहते हैं। जो पुरुष होगा उसे पुरुष के अवयव मिलेंगे और जो स्त्री होगी उसे स्त्री के अवयव मिलेंगे। यह सब गर्भ से ही निर्धारित हो जाता है।
इसी तरह से भावलिंग भी होता है जो हमारे भावों में चलता है। इन दोनों लिंगों के अलग-अलग कर्मों के उदय आगम में बताए गए हैं।
द्रव्यलिंग के लिए आचार्य कहते हैं कि शरीर नामकर्म के उदय के साथ-साथ स्त्रीलिंग सम्बन्धी अंगोपांग नामकर्म के जब उदय होते हैं तो स्त्री सम्बन्धी रचनाएं शरीर की बनती हैं। पुल्लिंग नामकर्म के उदय के होने पर पुरुष सम्बन्धी रचनाएं बनती हैं। एक नपुंसक भी होते है जिनके शरीर की रचना इन दोनों से भिन्न होती हैं। इस तरह से इन तीनों लिंगों की रचना अंगोपांग नामकर्म के उदय से और शरीर नामकर्म के उदय से होती है। भीतर जो भावलिंग चलता है वह वेदकर्म के उदय से चलता है। आपने पढ़ा होगा पच्चीस कषायों में सोलह कषायें होती हैं और नौ नौकषाय कहलाती हैं। उन नौकषायों में अन्त में तीन वेद आते हैं। वे तीन वेद एक प्रकार से काषायिक परिणति है। उन तीनों वेदों के उदय से उस-उस प्रकार के भाव उत्पन्न होते हैं। उसके लिए भी आचार्य ने लिखा है कि जिसके अंदर स्त्रीवेद का उदय होगा तो उसको पुरुष से रमण करने की इच्छा होगी और जिसके अंदर पुरुष वेद का उदय होगा उसे स्त्री से रमण करने की इच्छा होगी। जिसके अंदर नपुंसक वेद का उदय होगा उसको स्त्री और पुरुष दोनों से रमण करने की इच्छा होगी। ये नौ-कषायों के उदय से होने वाले वेद भाव भी जीवन पर्यंत तक रह सकते हैं और रहते हैं-ऐसा भी आचार्यों ने लिखा है। प्रत्येक कषाय अन्र्तमुहूर्त तक रहती है। क्रोध, मान, माया, लोभ इन कषायों का अवस्थान केवल अतमुहूर्त तक होता है। लेकिन वेद जीवन पर्यन्त तक रहते हैं। इसलिए श्री धवला पुस्तक में आचार्य श्री वीरसेन जी ने लिखा है कि वेद, कषायों की तरह अन्तमुहूर्त तक रहने वाले नहीं है। ये पूरे जीवन भर एक जैसे रह सकते हैं। इसके अनुसार जो भाव बनते हैं वे भाव यह निर्धारित करते हैं कि कैसा भाव हमारे अंदर वेद के रूप में आ रहा है। इसको भाववेद कहते हैं। इन भाववेद और द्रव्यवेद में विषमता भी देखने को मिलती हैं। इसको वेद वैषम्य कहते हैं। यह विषमता कैसी होती है?इस पर आचार्य कहते हैं कि ऊपर से कोई भी पुरुषवेदी हो तो भावों से वह
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