________________
जीव-विज्ञान
नपुसंक लिंग ही होता है। अब द्रव्यलिंग में यह कैसे निश्चित किया जाए कि द्रव्यलिंग इसमें नर का है या मादा का है। इस बात को विज्ञान भी निश्चित नहीं कर पाता है। उनके अंदर के इन भावों की परिणामों की प्रक्रिया को देखकर ही विज्ञान इस चीज का निश्चय करता है कि ये नर हैं और ये मादा हैं। देखा जाए तो आचार्य कहते हैं ये सब नपुंसक लिंग वाले होते हैं। नपुंसक लिंग में बाहर से भी दोनों प्रकार की चीजें पाई जाएंगी। कुछ चिह्न उनके अंदर पुरुष वेदी होंगे और कुछ चिह्न उनमें स्त्री वेदी सम्बन्धित होंगे। इस प्रकार नपुंसक लिंग में बाहर से भी दोनों प्रकार की चीजों की सम्भावना हो गई और भावों के माध्यम से भी दोनों प्रकार के चीजों की सम्भावना हो जाती है। जीव तो नपुंसक है लेकिन उसके भाव की अपेक्षा से हमने उसे स्त्री भी कह दिया और पुरुष भी कह दिया। अगर ऐसे नर और मादा का विभाजन आज का साइंस करता है तो करे लेकिन जैन - साइंस कहता है वे सभी नपुंसक वेदी ही होते हैं। इसलिए चार इन्द्रिय मच्छर, मक्खी, पतंगे, भौंरे आदि जितने भी तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय जीव हैं इन सभी जीवों में नपुंसक वेद ही होता है।
आगे के सूत्र में आचार्य महाराज कहते हैं
न देवाः ।। 51 ||
अर्थ-देव नपुंसक लिंग वाले नहीं होते हैं।
इस सूत्र का सम्बन्ध पूर्व सूत्र से जोड़ना चाहिए क्योंकि अगर आप इसी सूत्र का अर्थ करोगे तो इसका अर्थ होगा-'देव नहीं होते हैं।' इसलिए इस सूत्र का सम्बन्ध पहले सूत्र से है क्योंकि सूत्रों का आपस में सम्बन्ध होता है। यहाँ पर यह कहा जा रहा है कि देव नपुंसकलिंग वाले नहीं होते हैं क्योंकि पहले नपुंसक लिंग का वर्णन किया गया है। यहाँ पर यह नियामकता बनाई गई है कि देवों में नपुंसकलिंग नहीं होता है। जब इनमें नपुंसकलिंग नहीं है तो क्या बचा? जो बचा वह है-पुरुष लिंग और स्त्रीलिंग । अर्थात् देवों में दो ही प्रकार के लिंग मिलेंगे। वहाँ पर देव भी होंगे और देवियाँ भी होंगी। शास्त्रों के अनुसार देवियों की व्यवस्था केवल सोलह स्वर्ग तक ही होती है। उसके आगे देवियाँ नहीं होती हैं केवल देव ही देव रहते हैं। उन देवों का देवियों से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। सोलहवें स्वर्ग से ऊपर के देव अपने उस पुरुष वेद के साथ ही नियामक रूप से रहेंगे। इस व्यवस्था से आप यह भी समझ लेना कि जिसके अंदर पुरुष वेद का उदय है उसके लिए यह जरूरी नहीं है उसे स्त्री से रमण करने की इच्छा हो । या जिसमें स्त्रीवेद का उदय है उसे पुरुष के साथ रमण करने की इच्छा हो। क्योंकि यह परिणति भावों पर निर्भर करती है और भावों में जैसे-जैसे कषायों की कमी होती चली जाती है लेश्याएं विशुद्ध होती चली जाती हैं। आपके अंदर ऐसे परिणाम उत्पन्न हो जाएंगे कि आपको किसी Opposite से सेक्स करने की इच्छा नहीं होगी। यह चीज देवों
भी घटित होती है। इसका सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन से कोई सम्बन्ध नहीं है । इसका केवल अपनी लेश्या से सम्बन्ध हैं । आप इस विषय को समझकर अपने परिणामों को सही बनाने का प्रयास
82