Book Title: Jeev Vigyan
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Akalankdev Vidya Sodhalay Samiti

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Page 33
________________ जीव-विज्ञान हैं। उनके मन में किसी के लिए भी राग या द्वेष नहीं है । इसलिए केवलज्ञानी को अनन्त को जानने के पश्चात् भी उनके ऊपर कोई भार नहीं पड़ता । ये सभी चीजें प्रत्येक जीवात्मा के अंदर चल रही हैं और इस उपयोग के माध्यम से प्रत्येक व का अस्तित्व बना हुआ है। उपयोग की क्रियाएँ प्रत्येक जीव में निराबाध रूप से चलती आ रही हैं, और चलती रहेंगी। जब भी कोई परिणति बदलेगी तो ज्ञानोपयोग कहीं नही जाएगा, दर्शनोपयोग कहीं नहीं जाएगा केवल उसका रूप बदल जाएगा। जैसे- केवलज्ञान हो गया, अवधिज्ञान हो गया, मनःपर्ययज्ञान हो गया तो ज्ञान की परिणतियाँ बदल जाएगी। लेकिन उपयोग तो कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में विभाजित होकर चलता ही रहेगा। इसलिए उपयोग आत्मा का लक्षण है । लक्षण का अर्थ होता है जो कभी भी अपने स्वभाव को न छोड़े। जिससे उस जीव की पहिचान होती रहे और उस लक्षण के माध्यम से हम हमेशा उसको पकड़ते रहें । लक्षण से ही कोई चीज पकड़ में आती है। जिसे हम Definition बोलते हैं । उसका Particular कोई Character | जीव को कभी पकड़ना है तो वह ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग के माध्यम से ही पकड़ में आएगा। आचार्य जीव के भेद बताते हुए सूत्र कहते हैं संसारिणो मुक्ताश्च ।। 10 ।। अर्थ-जीव दो प्रकार के हैं- संसारी जीव और मुक्त जीव । • इस सूत्र में जीव के दो भेद बताए गए हैं- एक संसारी जीव और दूसरे मुक्त जीव । संसारी जीव को यहाँ 'संसारिणो' अर्थात् इसे बहुवचन में लिखा गया है और 'मुक्ता' इसे भी में बहुवचन लिखा गया है । संसारी जीव भी बहुत हैं और मुक्त जीव भी बहुत हैं । संसारी जीव उन्हें कहते हैं जो T संसार में निरन्तर संसरण कर रहे हैं । संसरण का अर्थ है-भ्रमण करते रहना अथवा कर्म के कारण जन्म-मरण की प्रक्रिया में पड़े रहना। यह संसारी जीवों का लक्षण कहलाता है। मुक्त जीव उन्हें कहते हैं जो संसार की इस प्रक्रिया से मुक्त हो गए हैं। वे भी जीव हैं, उनमें भी उपयोग और लक्षण बराबर बना हुआ है। वे केवल अपने केवलज्ञानोपयोगी और केवलदर्शनोपयोगी लक्षण से जी रहे हैं। हम संसारी जीव यहाँ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन इन चार उपयोगों से जी रहे हैं। कुछ लोगों का प्रश्न रहता है-सिद्ध भगवान में क्या रह जाता है? सिद्ध भगवान किससे जीते हैं? उनके पास आत्मा है और आत्मा का जो मूल स्वभाव उपयोग लक्षण वाला है वह उपयोग तो उनका कहीं नहीं गया। वह उपयोग उनका अपने आप स्वाभाविक हो गया कि उस उपयोग से बिना किसी पुरुषार्थ के सब कुछ जान रहे हैं और सब कुछ देख रहे हैं। हम संसारी जीवों को तो बहुत पुरुषार्थ करना पड़ता है। उस पुरुषार्थ में अनेक चीजें हमारे लिए सहायक बन रही हैं। हमारा शरीर, मन, बुद्धि, हमारे सामने का वातावरण, उपदेश आदि आदि... अनेक चीजें हमारे लिए सहायक बन रही हैं। तब हम कुछ जान पा रहे हैं, कुछ सुन पा रहे है और कुछ समझ पा रहे हैं। सिद्ध भगवान बिना किसी सहायता के सब कुछ जान रहे हैं। इसलिए केवलज्ञान को असहाय कहा गया है। आप 33

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