Book Title: Jeev Vigyan
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Akalankdev Vidya Sodhalay Samiti

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Page 45
________________ जीव-विज्ञान होगी। यदि वह जीव त्रसों में दो इन्द्रिय नामकर्म के उदय को प्राप्त होगा तो उसमें दो इन्द्रिय सम्बन्धी ही क्षयोपशम होगा। उतनी ही उसकी रचना होगी। ये सारी की सारी रचनाएं आत्मा में कर्म के उदय से और जो कर्म ज्ञान के क्षयोपशम के रूप में रहते हैं, उसके कारण से आत्मा में होती हैं । इसलिए ये ज्ञानेन्द्रिय के रूप में कही जाती हैं। कहने का तात्पर्य है कि लब्धि का अर्थ हमारी आत्मा में कर्म का क्षयोपशम होना है। जिसके माध्यम से हमें पाँच इन्द्रियों का ज्ञान होगा। जिसके पास चार इन्द्रियाँ हैं तो उसके पास चार इन्द्रियों के ज्ञान सम्बन्धी ही क्षयोपशम होगा । अर्थात् क्षयोपशम विशेष का नाम लब्धि है और उस क्षयोपशम के अनुसार आत्मा में उस क्रिया के होने का नाम उपयोग है। क्षयोपशम के अनुसार आत्मा उस-उस व्यापार के लिए कार्य कर रही है। इसका नाम ही उपयोग है । ये लब्धि और उपयोग दोनों ही एक तरह की भावात्मक परिणतियाँ हैं । इसलिए इनको यहाँ पर भावेन्द्रिय के रूप में लिखा गया है। अर्थात् ये हमारी आत्मा के भाव सम्बन्ध रखते हैं। जैसा हमारे अंदर क्षयोपशम होगा वैसी ही भावात्मक प्रक्रिया शुरू होगी और उसी भावात्मक प्रक्रिया के अनुसार ऊपर कहे हुए द्रव्येन्द्रियों की निर्वृत्तियाँ और उपकरण बनना शुरू होंगे। I निर्वृत्ति में भी आचार्य कहते हैं कि जहाँ पर हमारी आत्मा में रचना होनी है, आत्मा में केवल वहीं के उत्सेध अंगुल के असंख्यात प्रदेश वहीं पर उस रचना को प्राप्त हो जाते हैं। जैसे आपके अंदर ज्ञान का क्षयोपशम तो पूरी आत्मा में होगा। वह क्षयोपशम लब्धि के रूप में और उपयोग के रूप में होगा। लेकिन जो निर्वृत्ति अर्थात् रचना होगी वह आँख की आँख के स्थान पर ही होगी । क्षयोपशम तो पूरी आत्मा में है लेकिन रचना आँख के स्थान पर आँख की और कान के स्थान पर कान की है। जो ये रचना होती है पहले आत्मा के प्रदेश उस नेत्र इन्द्रिय के रूप में अपनी रचना वहाँ पर कर लेते हैं। उसे अभ्यन्तर निर्वृत्ति कहते हैं। उस अभ्यन्तर निर्वृत्ति होने के बाद वहाँ पर जो पुद्गलों का समूह इकट्ठा होने लग जाता है उसे बाह्य निर्वृत्ति कहते हैं । फिर उस बाह्य रचना होने के बाद द्रव्य उपकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है और उसके बाद अन्त में बाह्य उपकरण की प्रक्रिया शुरू होती है। इस तरह से यह चार चीजें तो द्रव्येन्द्रिय सम्बन्धी हैं- अभ्यंतर निर्वृत्ति, बाह्य निर्वृत्ति, अभ्यंतर उपकरण और बाह्य उपकरण । तब जाकर यह आँख दिखाई देती है। ये चार चीजें तो पुद्गल में हो रही है इसलिए इसे द्रव्य इन्द्रिय की मुख्यता से कहा गया है। भाव इन्द्रिय में जो कर्म का क्षयोपशम हम पिछले जन्म में लेकर आये हैं उसके अनुसार आत्मा अपना उपयोग करने लग जाता है। लब्धि और उपयोग दोनों मिलकर भावेन्द्रिय कहलाते हैं। इस तरह से इन छः चीजों के माध्यम से आत्मा के अंदर इन्द्रियों की रचना होती है । चार द्रव्येन्द्रिय स्वरूप और दो भावेन्द्रिय स्वरूप है। इन सबके संयोग के बाद कोई आत्मा अपनी इन्द्रियों की रचना करता है और इन इन्द्रियों से अपना काम लेता है। इस ग्रंथ को इन सिद्धांतों को पढ़कर आप समझ सकते हैं हमारे पूर्वजन्म के क्षयोपशम से हमें सब कुछ मिल रहा है। हमारा जन्म पञ्चेन्द्रिय पर्याय में हुआ । पाँच इन्द्रियाँ तो हमने गर्भ में ही बना ली हैं। ये सारी रचनाएं गर्भ में ही हो जाती हैं। वहीं पर आत्मा अपना यह उपयोग करता रहता है। लब्धि और उपयोग के माध्यम से 45

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