Book Title: Jeev Vigyan
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Akalankdev Vidya Sodhalay Samiti

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Page 63
________________ जीव-विज्ञान दूसरा गर्भजन्म होता है। आप जानते हैं कि मनुष्य और पंचेन्द्रियों जीवों का गर्भजन्म होता है। जिसमें शुक्र और शोणित इन दोनों चीजों के सम्मिश्रण की आवश्यकता पड़ती है उस जन्म को गर्भजन्म कहते है। इसमें संयोग की आवश्यकता पड़ेगी। उन जीवों के जन्म को गर्भजन्म कहते हैं। तीसरा उपपाद जन्म होता है। यह जन्म उपपाद शय्याओं पर स्वतः ही हो जाता है। जीव उस उपपाद शय्या पर पहुँचा और एक अन्र्तमुहूर्त में वहाँ अपने आप उसका पूरा शरीर बनकर तैयार हो जाएगा। उसका यह शरीर असंख्यात वर्षों तक जैसा का तैसा बना रहता है। युवावस्था के रूप में एक अन्तमुहूर्त के अंदर उसका पूर्ण शरीर बनकर तैयार हो जाता है। उपपाद जन्म लेने वाले देव और नारकी जीव होते हैं। आचार्य जी ने जन्म के तीन भेद करके यह बताया कि जन्म एक ही प्रकार का नहीं होता है। जन्म तीन प्रकार के होते हैं। आगे के सूत्र में आचार्य योनियों के भेद बताते हुए कहते हैं सचित्तशीतसंवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः ।। 32 ।। अर्थ सचित्त, शीत, संवृत (ढकी हुई) शीत शीतोष्ण अचित, उष्ण, विवृत (खुली हुई) (ठंडी) सचित्ताचित्त, शीतोष्ण संवृतविवृत (मिश्र) उष्ण (कुछ ढकी व कुछ खुली हुई) ये (गर्म) सम्मुर्छनादि जन्मों की नौ योनियाँ हैं। इस सूत्र में योनि स्थान बताए जा रहे हैं जहाँ पर इन जीवों का जन्म संचित्ता- संवृत चित्त (ढकी) होता है। उन योनियों की कुछ विशेषताएँ हैं जो यहाँ बताई जा रही हैं। कुछ योनियां सचित्त होती है, कुछ शीत होती है अर्थात् शीत स्पर्श वाली योनि (उत्पत्ति स्थान) होती हैं, संवृत अर्थात् ढकी हुई होती हैं, सेतरा का अर्थ है विपरीत । अर्थात् 'सचित्त' के विपरीत कुछ योनि अचित्त होती हैं, कुछ शीत के विपरीत उष्ण होती हैं, कुछ संवृत की उल्टी विवृत होती हैं अर्थात खुली हुई होती हैं, कुछ इन तीनों की मिश्रित भी होती हैं। वह मिश्रण एकशः अर्थात् क्रम से होता है। जो इस प्रकार है-सचित्त-अचित्त, शीत-उष्ण और संवृत-विवृत। इस तरह इन योनियों के मुख्य रूप से नौ भेद हो जाते हैं। सचित्त, अचित्त, शीत, उष्ण, संवृत, विवृत, सचित्ताचित्त, शीतोष्ण, संवृतविवृत। विवृत (खुली) अचित्त (चेतना नियताई जा रही डितो ।। (मिश्र) सचित्त (चेतना सहित) योनि (उत्पत्ति व विवृत संवृत | कुछ खुली (कुछ ढकी 63

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